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घूमती सिद्धायतन में आई, वहाँ मदनवेगा के साथ आपको देखा। आप सिद्धचैत्य से अमृतधार नगर में आए। वहाँ मैं भी आपके पीछे पीछे आई। वहाँ मैं अंर्तधान होकर रही थी। इतने में आपके मुख से मेरा नाम सुना, तो तत्काल आपके स्नेह से और चिरकाल के विरह का क्लेश त्याग दिया । मेरा नाम सुनकर मदनवेगा क्रोधित होकर अंतगृह में गई । इतने में सूपर्णखा ने औषधी के बल से उस घर में अग्नि उत्पन्न कर दी और मदनवेगा का रूप लेकर उसने आपका हरण किया । उसने जब आकाश में आपको नीचे पटक दिया, उस समय मैं आपको झेलने के लिए जल्दी जल्दी दौड़ी और मानसवेग का कल्पित रूप लेकर नीचे रही। परंतु मुझे उसने देखा तो विद्या और औषधी के बल से मुझे तिरस्कार करके निकाल दिया । उसके भय से भाग कर मैं किसी चैत्य में चली गई। इतने में प्रमादवश किसी मुनि का अपमान हो जाने से मेरी विद्या भ्रष्ट हो गई । तब मेरी धा आकर मुझसे मिली। उस समय मेरा भर्ता कहाँ होंगे ? ऐसा मैं चिंतन कर रही थी। मैंने धात्री से सर्व वृत्तांत कहकर आपकी खोज में भेजा । उसने घूमते-घूमते आपको पर्वत से गिरते देखा, अतः तत्काल आपको अधर में ही ले लिया । पश्चात् आपको उस धमण में ही रखकर वह इस हीमान पर्वत के पंचनद तीर्थ मे ले आई। यहाँ आप छूट गये।
(गा. 458 से 473)
यह वृत्तांत सुनकर वसुदेव वहाँ एक तापस के आश्रम में उसके साथ रहे। एक बार नदी में पाश से बंधी हुई एक कन्या उसको दिखाई दी। वेगवती ने भी उसके विषय में कहा तब उन दयालु वसुदेव ने नागपाश के बंधनवाली उस कन्या को बंधन से मुक्त किया । पश्चात् उस मूर्च्छित कन्या को जलसिंचन करके सचेत किया तब वह बैठी हुई। उसने वसुदेव की तीन प्रदक्षिणा की तत्पश्चात् इस प्रकार बोली, हे महात्मा आपके प्रभाव से आज मेरी विद्या सिद्ध हुई है। उससे संबंधित वार्ता मैं कहती हूँ- सुनो, वैताढ्य गिरी पर गगनवल्लभ नामक नगर है। उस नगर में नाभिराजा के वंशज पूर्व में विद्युदृष्ट नाम का राजा हुआ । उन्होंने प्रत्येक विदेह में एक मुनि को कायोत्सर्ग में रहे हुए देखा। तब वह बोला, अरे! यह कोई उत्पात है अतः इनके वरूणाचल में ले जाकर मार डालो। ऐसा उसके कहने पर उसके साथी खेचर उनको मारने लगे । परंतु शुक्ल ध्यान धरते उन मुनि को उस समय केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । तब धरणेंद्र केवली की महिमा करने
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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