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विद्या और दिव्य अस्त्रों से पराक्रम में पुष्ट हुए वसुदेव ने इंद्र की भांति अकेले ही उन खेचरों को जीत लिया। पश्चात उन्होंने मानसवेग को बांधकर सोमश्री के आगे डाला। परंतु अपनी सासु अंगारवती के कहने से ही उसे छोड दिया। सेवक बने मानसवेग आदि विद्याधरों से परिवृत वसुदेव सोमश्री को साथ लेकर विमान में बैठकर महापुर नगर में आए। वहाँ सोमश्री के साथ विलास करने लगे।
(गा. 560 से 570) एक बार मायावी सूर्पक ने अश्व का रूप लेकर वसुदेव का हरण कर लिया। उसे पहचान कर वसुदेव ने मुष्टि के द्वारा उनके मस्तक पर प्रहार किया, जिससे सूर्पक ने उनको ऊर से नीचे फेंक दिया तो वसुदेव गंगानदी के जल में गिरे। पश्चात उन्होंने तैर कर गंगा नदी को पार किया और वे तापस के आश्रम में गये। वहाँ कंठ में हड्डियों की माला पहन कर खड़ी एक स्त्री उनको दिखाई दी।
(गा. 571 से 576) उस स्त्री के विषय में उन्होंने तापसों को पूछा। तब तापस बोले यह जितशत्रु राजा की नंदीषेणा नाम की स्त्री है, यह जरासंध की पुत्री है। इस स्त्री को एक संन्यासी ने वश में किया था, उस संन्यासी को राजा ने मार डाला, तथापि दृढ़ कामण से इस स्त्री ने अभी भी उस संन्यासी की हड्डियों को धारण कर रखा है। पश्चात वसुदेव ने मंत्र बल से उसका कामण दूर कर दिया। तब जितशत्रु राजा ने अपनी केतुमती नाम की बहन वसुदेव को दी। उस समय डिंभ नाम के जरासंध के द्वारपाल ने आकर जितशत्रु राजा को कहा कि नंदीषणा के प्राणदाता को भेजा क्योंकि वह परम उपकारी है। राजा ने यह बात उपयुक्त समझकर आज्ञा दे दी। अतः वसुदेव द्वारपाल के साथ रथ में बैठकर जरासंध के नगर में आए। वहाँ नगर रक्षकों ने तत्काल ही उनको बांध दिया। वसुदेव ने स्वंय को बांधने का कारण पूछा। तब वे बोले- किसी ज्ञानी ने जरासंध को कहा है कि तेरी पुत्री नंदीषणा को जो वश में कर देगा उसका पुत्र तुझे अवश्य मार देगा। वह तुम ही हो, ऐसी उसे खबर मिलती है। इसलिए हम तुझे मारने को ले जा रहे हैं। ऐसा कहकर वे वसुदेव को पशु की तरह वध्यस्थल में ले गये। वहाँ मुष्टिक आदि मल्ल वसुदेव को मारने को तैयार हो गया।
(गा. 577 से 583)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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