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क्रोधित होकर मदनवेगा दूसरी शय्या पर चली गई। उस समय त्रिशिखर राजा की पत्नी सूपर्णखा ने मदनवेगा का रूप लेकर उस स्थान को जलाकर वसुदेव का हरण किया। पश्चात उसने मारने की इच्छा से राजगृही नगरी के पास वसुदेव को आकाश में नीचे फेंक दिया। देवयोग से वसुदेव तृण राशि पर गिरे। वहाँ पासाओं से कोटि सुवर्ण जीतकर याचकों को दान दे दिया। इतने में राजपुरूष आए और वसुदेव को बांधकर जरासंध के दरबार में ले चले। वसुदेव ने राजसुभटों को पूछा कि, अपरा के बिना मुझे किस लिए बांधा है? तब वे बोले कि किसी ज्ञानी ने जरासंध को कहा है कि कल प्रातःकाल यहाँ आकर सुवर्ण मुद्रा जीतकर जो याचकों को दे देगा, उसका पुत्र तुम्हारा वध करने वाला होगा। यह कार्य करने वाले तुम हो। यद्यपि तुम निरपराधी हो तो भी राजा की आज्ञा से तुमको मार डाला जाएगा। ऐसा कह उन्होंने वसुदेव को एक चमड़े की धमण में डाला। तब अपवाद के भय से गुप्त रीति से मारने के इच्छुक ऐसे राजसुभटों ने उसको धमण के साथ पर्वत से लुढ़का दिया।
(गा. 450 से 457) इतने में वेगवती की धात्री माता ने अधर में ही उसे ले लिया। जब वह उनको लेकर चली, तब वसुदेव को ऐसा लगा कि मुझे चारुदत्त की तरह कोई भारंड पक्षी आकाश में ले जा रहा है। पश्चात उसने उसको पर्वत पर रखा जब वसुदेव ने बाहर की ओर दृष्टि की तब वहाँ वेगवती के दोपगले उन्होंने देखे। उनको पहचानकर वे धमण से बाहर निकले। उस समय वहाँ हे नाथ! हे नाथ! ऐसा पुकारती हुई रूदन करती वेगवती उनको दिखाई दी। वसुदेव ने उसके पास जाकर उसका आलिंगन किया और उससे पूछा कि तूने मुझे किस प्रकार प्राप्त किया? वेगवती आंसू पोंछती हुई बोली- हे स्वामिन्! मैं जिस समय शय्या त्यागकर उठी उस समय मुझ अभागिनी ने आपको शय्या पर नहीं देखा। अतः मैं अंतःपुर की स्त्रियों के साथ करूण स्वर में रूदन करने लगी। इतने में प्रज्ञप्ति विद्या में आकर तुम्हारे अपहरण की तथा आकाश में से गिरने के समाचार दिये। तब मैंने अज्ञानता के कारण विचार किया कि मेरे पति के पास किसी मुनि की बताई हुई कोई प्रभावित विद्या होगी, अतः वे अल्पकाल में यहाँ आयेंगे। इस प्रकार सोचकर आपके वियोग से पीड़ित मैं अनेक समय व्यतीत करने के पश्चात् राजा की आज्ञा से आपकी तलाश में पृथ्वी पर घूमने लगी। मैं घूमती
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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