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मेरे जैसी कुलीन कन्या के आप विवाह पूर्वक पति हुए हो । प्रातः काल वेगवती को देखकर सभी को विस्मय हुआ । पति की आज्ञा से उसने सोमश्री के हरण की वार्ता लोगों को बताई ।
(गा. 412 से 423)
एक बार रात्रि को वसुदेव रति श्रांत होकर सो रहे थे कि इतने में अतिवेग वाले मानसवेग ने आकर उनका अपहरण कर लिया। यह ज्ञात होने पर वसुदेव उस खेचर के शरीर पर मुष्टि का प्रहार करने लगे । उससे पीड़ित होकर मानसवेग
वसुदेव को गंगा के जल में डाल दिया । वहाँ चंडवेग नाम का एक खेचर विद्या साथ रहा था, उसके स्कंध पर वसुदेव गिरे। परंतु वह तो उसकी विद्या साधन में कारणभूत हो गए। उसने वसुदेव को कहा कि महात्वन्! आपके प्रभाव से मेरी विद्या सिद्ध हो गई है, अतः कहो मैं तुमको क्या दूँ ? उसके इस प्रकार कटने से वसुदेव ने आकाशगामी विद्या मांगी। उस खेचर ने तत्काल ही वह विद्या उनको दी। तब वसुदेव कनखल गांव के द्वार में रहकर समर्पित मन से वह विद्या साधने लगे।
(गा. 424 से 428)
चंडवेग वहाँ से गया ही था कि विद्युद्वेग राजा की पुत्री मदनवेग वहाँ आई । उसने वसुदेव कुमार को देखा उनको देखते ही काम पीडित हो गई। इससे उसने तत्काल ही वसुदेव को वैताढ्य पर्वत पर ले जाकर कामदेव की तरह पुष्पशयन उद्यान में रखा। पश्चात् उन्होंने अमृतधार नगर में प्रवेश किया प्रातः उसके तीन भाईयों ने आकर वसुदेव को नमस्कार किया। उनमें पहला दधिमुख दूसरा दंडवेग और तीसरा चंडवेग था कि जिसने वसुदेव को आकाश गामिनी विद्या दी थी । तब वसुदेव को अपने नगर में ले गए और वहाँ मदनवेगा के साथ विधिवत विवाह किया। वसुदेव मदनवेगा के साथ वहाँ सुखपूर्वक रहकर रमण करने लगे।
(गा. 429 से 433)
एक दिन मदनवेगा ने वसुदेव को संतुष्ट करके वरदान मांगा। पराक्रमी वसुदेव ने वरदान देना स्वीकार किया । दधिमुख ने वसुदेव को नमस्कार करके कहा कि, दिवस्तिलक नाम नगर में त्रिशिखर नाम का राजा है उनके सूर्पक नामक कुमार है। उस राजा ने सूर्पक कुमार के लिए मेरे पिताजी के पास
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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