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पहले से ही आया हुआ राजा का अंतःपुर भी उस इंद्रस्तंभ को नमन करके राजमहल की ओर चल दिया।
इतने राजाओं का एक हस्ति आलानस्तंभ का उल्लंघन करके छूट कर वहाँ आया। उसने अकस्मात् राजकुमारी को रथ से नीचे गिरा दिया। उस समय दीन अशरण और शरणार्थी ऐसी राजकुमारी की दशा को देखकर वसुदेवकुमार मानो उसका प्रत्यक्ष रक्षक हो। उस प्रकार वहाँ आए और उस हाथी को वश में करने लगे इसलिए क्रोध से अभिभूत हो वह महादुर्धर राजकुमारी को छोड़ वसुदेव के सामने दौड़ा। महाबलवान वसुदेव ने उस हाथी को बहुत छकाया। पश्चात उसे मोहित करके वासुदेव राज पुत्री को समीप के किसी घर में ले गये
और उतरीय वस्त्र से पवनादिक द्वारा उसे आश्वासन दिया। उसके बाद उसकी सखियाँ उसे राजमहल में ले गई और कुबेर सार्थवाह वसुदेव को उसके श्वसुर सहित मानपूर्वक अपने घर ले गया। वहाँ वसुदेव स्नान भोजन करके स्वस्थ हुए। इतने में किसी प्रतिहारी ने आकर नमित शीषपूर्वक इस प्रकार कहा- यहाँ के सोमदत राजा के सोम श्री नाम की कन्या है, उसे स्वयंवर में ही पति मिलेगा, ऐसा पूर्व में ज्ञात हुआ था परंतु सर्वण यति के केवलज्ञान महोत्सव में देवताओं को आते देखकर उसे जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब से यह मृगाक्षी बाला मौन धारण करके रहने लगी।
(गा. 393 से 400) एक बार एकांत में मैंने उससे इसका कारण पूछा, तब वह बोली कि महाशुक्र देवलोक में भोग नामक एक देव था। उसने मेरे साथ अतिवात्सल्य से चिरकाल तक भोग भोगे थे। एक वक्त वह देव मेरे साथ नंदीश्वारादि तीर्थ की यात्रा और अर्हत प्रभु का जन्मोत्सव करके अपने स्थान की तरफ लौट गया था। वह ब्रह्मदेव लोक तक पहुँचा ही था कि इतने में आयुष्य पूर्ण होने से वहाँ से च्यवन हो गया। तब शोकार्त होकर मैं उसे ढूँढती हुई इस भरतक्षेत्र के कुरू देश में आई। वहाँ दो केवलियों को देखकर मैंने पूछा कि, देवलोक से च्यव कर मेरा पति कहाँ उत्पन्न हुआ है! वह कहो। वे बोले, हरिवंश में एक राजा के यहाँ तेरा पति अवतरित हुआ है और तू भी स्वर्ग से च्यवकर राजपुत्री होगी। जब इंद्रमहोत्सव में हाथी के पास से जो तुझे छुड़ायेगा तब वह पुनः तेरा पति होगा। तब उनको भक्तिपूर्वक वंदना करके मैं स्वस्थान आई। अनुक्रम से वहाँ से
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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