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एक बार वसुदेव हस्तिशाला में गये । वहाँ एक नवीन हाथी को देखकर वे उसके उपर बैठे। इतने में तो वह हाथी आकाश में उड़ने लगा । तब वसुदेव ने उस पर मुष्टि का प्रहार किया । वह हाथी किसी सरोवर के तीर पर पडा । तो वह मूल स्वरूप में नीलकंठ नाम का खेचर हो गया । जो पहले नीलयशा के विवाह के समय युद्ध करने आया था । वहाँ से भ्रमण करते-करते वसुदेव सालगृह नामक नगर में आए। वहाँ भाग्यसेन नामक उस नगर के राजा ने उसे धनुर्वेद सिखाया। एक बार भाग्यसेन राजा के साथ युद्ध करने के लिए उसके अग्रबंधु मेघसेन वहाँ आये । उसे महापराक्रमी वसुदेव ने जीत लिया। तब भाग्यसेन ने पद्मा लक्ष्मी जैसी अपनी पुत्री वसुदेव को दी। पद्मावती और अश्वसेना के साथ कितने समय क्रीड़ा करते हुए वसुदेव भदिलपुर नगर में आए। वहाँ का राजा पुद्र की अपुत्रिया की मत्यु हो गई । इससे उनकी पुत्री पुंद्रा औषधि द्वारा पुरूष रूप करके राज्य संचालन करती थी । वसुदेव ने उसे देखा । वसुदेव को देखते ही पुंद्रा उन पर अनुरक्त हुई। उस पुंद्रा का वसुदेव के साथ विवाह हुआ और उसके पुंढू नामक पुत्र हुआ जो वहाँ का राजा हुआ ।
(गा. 375 से 382)
एक बार उस अंगाकर खेचर ने रात्रि को हंस के बहाने से वसुदेव को उठाकर गंगा में डाल दिया । प्रातः वसुदेव ने इलावर्द्धन नगर को देखा । वहाँ एक सार्थवाह की दुकान पर उसकी आज्ञा लेकर वसुदेव बैठे । वसुदेव के प्रभाव से उस सार्थवाह को उस दिन एक लक्ष स्वर्णमुद्रा का लाभ हुआ । उसने यह वसुदेव का प्रभाव जानकर आदर सहित उनको बुलाया । पश्चात सुवर्ण के रथ में उनको बिठाकर उनको अपने घर ले गया और अपनी रत्नवती कन्या का वसुदेव के साथ विवाह कर दिया। एक बार इंद्रमहोत्सव होने से अपने श्वसुर के साथ एक दिव्य रथ में बैठाकर वसुदेव महापुर नगर गये । वहाँ उस नगर के बाहर नवीन प्रसादों को देखकर वसुदेव ने अपने श्वसुर से पूछा, क्या यह कोई दूसरा नगर है ? सार्थवाह ने कहा, इस नगर में सोमदत नाम का राजा है। उनके मुख की शोभा से सोम की कांति का भी मलिन दिखलाई दे ऐसी सोमश्री कन्या है। उसके स्वंयवर के लिए राजा ने ये नये प्रासाद बनवायें हैं । यहाँ बहुत से राजाओं को बुलाया था, परंतु उनके अचातुर्य से उनको वापिस विदा किया। पश्चात वसुदेव ने इंद्र महोत्सव संबंधी इंद्रस्तंभ के पास जाकर उसे नमस्कार किया । उस समय
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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