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लगे। पश्चात वेद में सोम श्री को जीत कर उससे विवाह किया और उसके साथ विलास करते हुए वहाँ रहे ।
(गा. 333 से 345 )
एक बार वसुदेव उद्यान में गये । वहाँ इन्द्रशर्मा नाम के एक इंद्रजालिक को उन्होंने देखा। उसकी आश्चर्यकारी विद्या देखकर वसुदेव ने उस विद्या को सीखने की मांग की, तब वह बोला कि यह मनमोहिनी विद्या ग्रहण करो। इस विद्या की साधना के लिए सांयकाल के समय सिद्ध होती है। परंतु उसमें उपसर्ग बहुत होते हैं। इसलिए उसे साधते समय किसी सहायता करने वाले मित्र की आवश्यकता रहेगी। तब वसुदेव ने कहा विदेश में तो मेरा कोई भी मित्र नहीं है । तब वह इंद्रजालिक बोला मैं और तुम्हारी यह भोजाई वनमालिका दोनों तुम्हारी सहायता करेंगे। इस प्रकार कहते हुए वसुदेव ने विधिपूर्वक उस विद्या को ग्रहण किया और उसका जाप करने लगे। उस समय मायावी इंद्रशर्मा ने शिबिका द्वारा उसका हरण किया । वसुदेव उसको उपसर्ग समझकर डिगे नहीं और विद्या का जाप करने लगे । परंतु प्रातः काल होने पर वे उसे माया समझ कर शिबिका में से उतर गये ।
(गा. 346 से 351 )
तब इंद्रशर्मा आदि कहने लगे, किंतु उनका उल्लंघन करके वसुदेव कुमार आगे चले। सायंकाल होने पर तृणशोषक नामक स्थान पर आये । वहाँ किसी मकान में वसुदेव सो गये। रात्रि में किसी राक्षस ने आकर उनको उठाया। तब वसुदेव उनको मुट्ठियों से मारने लगे। तब चिरकाल तब बाहुयुद्ध करके खरीदे हुए मेंढे की तरह वस्त्र से उस राक्षस को बांध लिया तथा जैसे रजक धोबी रेशमी वस्त्र को धोता है वैसे ही उसे भी पटक पटक कर मार डाला । प्रातःकाल होने पर लोगों ने इसे देखा तो लोग बहतु खुश हुए और उत्तम वर की भांति वसुदेव को रथ में बिठा गाजे बाजे के साथ वे अपने निवास स्थान पर गये । वहाँ सब लोग पाँच सौ कन्याएं लाकर वसुदेव को भेंट देने लगे । उसका निषेध करते हुए वसुदेव ने पूछा यह राक्षस कौन था वह कहो । तब उनमें से एक पुरूष बोला, कलिंग देश में आया हुआ कंचनपुर नगर में जितशत्रु नाम का एक पराक्रमी राजा था। उसके सोदास नामक पुत्र था जो कि स्वभाव से ही लोलुप होने से मनुष्य रूप में ही राक्षस हो गय। राजा जितशत्रु ने अपने देश में सर्व प्राणियों को अभयदान दिया हुआ था। तथापि उस सोदास ने प्रतिदिन एक मयूर के मांस
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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