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एक बार वसुदेव कुमार ग्रीष्म ऋतु में जल क्रीड़ा करके गंधर्व सेना के साथ सो रहे थे इतने में गाढ रूप से हाथ पकड़ कर उठो ऐसा बार बार कहता हुआ कोई प्रेत वसुदेव को बार-बार मुठ्ठी से मारने पर भी उसका हरण करके ले गए। वह वसुदेव को एक चिता के पास ले गया। वहाँ प्रज्वलित अग्नि और अत्यंत रूपवाली वह हिरण्यवती खेचरी वसुदेव को दिखाई दी। हिरण्यवती ने उस प्रेत को आदर से कहा कि हे चंद्रवदन! अच्छा आजा। उस वसुदेव को उसके सौंप कर क्षणभर में अंताप हो गया। तब हिरण्यवती ने हंसते हुए वसुदेव कुमार को कहा, हे कुमार! तुमने क्या सोचा ? हे सुंदर! हमारे आग्रह से अभी भी इससे विवाह करने का विचार करो। उसी समय अपसराओं से घिरी हुई मानो लक्ष्मी देवी हो ऐसी प्रथम देखी हुई वह नीलयशा सखियों से घिरी हुई वहाँ आई। उस समय उसकी पितामही हिरण्यवती ने उससे कहा हे पौत्री। इस तेरे वर को ग्रहण कर। तब वह नीलयशा वसुदेव को लेकर तत्काल ही आकाश मार्ग से चल दी। प्रातः काल हिरण्यवती ने वसुदेव को कहा कि मेघप्रभ नाम के वन से व्याप्त यह हीमान पर्वत है। चारण मुनियों से अधिष्ठित ऐसे इस गिरी में ज्वलन विद्याधर का पुत्र अंगारक विद्याभ्रष्ट होकर रहता है। वह पुनः खेचरेंद्र होने के लिए विद्याओं की साधना कर रहा है। उसको बहुत समय के पश्चात विद्या सिद्ध होगी परंतु यदि तुम्हारा दर्शन उसे होगा तो उसे तत्काल ही विद्या सिद्ध हो जायेगी। उस पर उपकार करने में तुम योग्य हो तब वसुदेव कुमार ने कहा कि उस अंगारक को देखने की जरूरत नहीं है। हिरण्यवती उनको वैताढ्यगिरि पर शिवमंदिर नगर में ले गई। वहाँ से सिंहदृष्ट राजा उनको अपने घर ले गये। वहाँ प्रार्थना की तब वसुदेव कुमार ने नीलयशा कन्या से विवाह किया।
(गा. 312 से 325) उस समय बाहर कोलाहल होने लगा, वह सुन वसुदेव ने उसका कारण पूछा। तब द्वारपाल ने कहा कि यहाँ शकरमुख नामक एक नगर है जिसका नीलवान राजा है। उनके नीलवती नामकी प्रिया है। उनके नीलांजना नामक पुत्री और नील नाम का पुत्र है। उस नील ने पहले अपनी बहन को संकेत किया था कि अपने दोनों को जो संतति हो, उसमें पुत्री के साथ पुत्र का पाणिग्रहण कराना। उस नीलांजना के तुम्हारी प्रिया यह नीलयशा पुत्री हुई है और नीलकुमार को नीलकंठ नाम का पुत्र हुआ है। उस नील ने पूर्व के संकेत के अनुसार अपने पुत्र नीलकंठ के लिए बहन की पुत्री नीलयशा की मांग की। परंतु इसके पिता ने
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)