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प्रातः काल में मेरे स्वार्थ नाम के मामा मित्रवती नामकी मेरी स्त्री और अखंड वेणी बंध वाली जिसने चारूदत के वियोग से बारह वर्ष पर्यंत वेणी खोलकर गूंथी नहीं। वसंत सेना वेश्या आदि को मैं मिला और सुखी हुआ । हे वसुदेव कुमार! इस प्रकार गंधर्वसेना की उत्पति मैंने तुमको कह सुनायी अतः वह वणिक पुत्री है, ऐसा समझ कर कभी भी उसकी अवज्ञा मत करना ।
(गा. 300 से 303)
इस प्रकार चारूदत से गंधर्वसेना का वृतांत सुनकर वसुदेव अति हर्षित होकर उसके साथ रमण करने लगे। एक वक्त वसंत ऋतु में रथ में बैठकर उसके साथ वसुदेव कुमार उद्यान में गए। वहाँ मांतगों से परिवृत और मातंग का वेष धारण की हुई एक कन्या उसको दिखाई दी । उसे देखते ही दोनों को परस्पर राग उत्पन्न हुआ। उस समय उन दोनों को परस्पर विकार सहित देखकर गंधर्वसेना ने लाल आँख करके सारथि को कहा कि रथ के घोड़ो को त्वरित गति से चला, ऐसा कह शीघ्र ही उपवन में जाकर वसुदेव कुमार क्रीड़ा करके चंपानगरी में आए। एक बार उस मातंग यूथ में से एक वृद्ध मांतगी आकर आशीष देकर वसुदेव को बोलती है।
पूर्व में श्री ऋषभदेव प्रभु ने सब को राज्य बांट कर दिया था । उस समय देवयोग से नमि विनमि वहाँ नहीं थे बाद में वे व्रतधारी प्रभु की सेवा करने लगे । इससे प्रसन्न होकर धरणेंद्र ने वैताढ्य की दोनों को श्रेणी का अलग अलग राज्य दिया। अनेक समय के बाद दोनों पुत्रों को राज्य देकर प्रभु के समीप दीक्षा ले ली तथा जैसे भक्त मुग्ध हुए प्रभु को देखने के अभिलाषी हो वैसे वे मोक्ष गए । नमि का पुत्र मांतग नाम का था, वह भी दीक्षा लेकर स्वर्ग में गया उनके वंश में अभी प्रहसित नाम का खेचरपति है। उनकी हिरण्यवती नाम की मैं स्त्री हूं। मेरे सिंहदृष्ट नामक पुत्र और नीलयशा नाम की पुत्री है। जिसे तुमने उद्यान मार्ग में आज ही देखा है। हे कुमार! उस कन्या ने जब से तुमको देखा है, वह कामपीड़ित हुई है अतः तुम उसका वरण करो कुमार। अभी शुभ मुहुर्त है और विलंब वह सहन नहीं कर सकेगी। वसुदेव ने कहा कि मैं विचार करके जवाब दूंगा अतः तुम पुनः आना । हिरण्यवती बोली, कि मैं यहाँ आँउगी या तुम वहाँ आओगे, यह तो कौन जाने ? ऐसा कहकर वह किसी स्थान पर चली गई।
(गा. 307 से 311 )
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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