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उसके विषय में एक बृहस्पति नाम के मुनि को पूछा। तब उन्होंने निर्देश किया कि अर्ध भारतवर्ष के पति विष्णु के पिता यादवों में उत्तम और सौभाग्य में कामदेव जैसे वसुदेव कुमार इस नीलयशा के पति होंगे। तब राजा विद्याशक्ति द्वारा तुमको यहाँ लाए और तुमने नीलयशा से विवाह किया। यह सुनकर वह नील युद्ध करने यहाँ आया है परंतु उसे राजा सिंहदृष्ट ने जीत लिया है, उसका यह कोलाहल है।
(गा. 326 से 332) यह वृत्तांत सुन वसुदेव अत्यंत खुश हुए और नीलयशा के साथ क्रीडा करने लगे। एक बार शरदऋतु में विद्या और औषधियों के लिए खेचर द्वीमान पर्वत पर जाते हुए दिखाई दिये। उनको देख वसुदेव ने नीलयशा को कहा कि विद्यादान में मैं तेरा शिष्य बनूँगा। यह बात स्वीकार कर नीलयशा उनको लेकर हीमान गिरी पर आई। वहाँ वसुदेव को क्रीडा करने की इच्छा जानकर नीलयशा ने एक कदलीगृह की विकुर्वी में उनके साथ रमण करने लगी। इतने में एक कलापूर्ण मयूर उसे दिखाई दिया। अहा ये मयूर पूर्ण कला वाला है इस प्रकार विस्मय युक्त बोलती हुई वह मदिराक्षी स्वयं ही उनको लेने को दौड़ी। जैसे ही मयूर के पास गई वैसे ही वह धूर्त मयूर उसे अपनी पीठ पर बिठाकर गरूड की भांति वहाँ से उड़ गया। वसुदेव उसके पीछे दौड़े। अनुक्रम से किसी नेहडा में आ पहँचे। वहाँ ग्वालिनों ने उनको मान दिया। वहाँ रात्रि में रहकर प्रातः काल में दक्षिण दिशा की ओर चले गए। वे किसी गिरी के तट के गांव में आए तो वहाँ बड़ी बड़ी आवाज में वैदध्वनि सुनकर उन्होंने किसी ब्राहमण से उसका पाठ करने का कारण पूछा। तब वह ब्राहमण बोला रावण के समय में एक दिवाकर नाम के खेचर ने नारदमुनि को अपनी रूपवती कन्या दी थी। उनके वंश में अभी सूरदेव नाम का ब्राहमण हुआ है। वह इस गांव का मुखिया ब्राह्मण है। उसके क्षत्रिया नाम की पत्नि से वेदज्ञा सोम श्री नाम की पुत्री हुई। उसके वर के लिए उसके पिता ने कराल नामक किसी ज्ञानी से पूछा। उन्होंने कहा कि जो वेद में उसे जीत लेगा वह उसका भर्तार होगा इसलिए उसको जीतने के लिए ये लोगा वेदाभ्यास करने में तत्पर हुए है। उनको वेदों की शिक्षा देने वहाँ ब्रह्मदत नाम के उपाध्याय है। तब वसुदेव ब्राह्मण का रूप लेकर उस वेदाचार्य के पास आए और कहा कि मैं गौतम गैत्र स्कन्दिल नाम का ब्राह्मण हूँ और मुझे आपके पास वेदाभ्यास करना है। ब्रह्मदत्त ने आज्ञा दी। अतः वसुदेव उनके पास वेद पढने
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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