________________
च्यवकर सोमदत्त राजा के यहाँ कन्या रूप में उत्पन्न हुई। सर्वाण मुनि के केवलज्ञान के उत्सव में देवताओं को देखकर मुझे जाति-स्मरण ज्ञान हुआ। तब यह सब मुझे ज्ञात हुआ। इसलिए मैंने मौन धारण किया। प्रतिहारी कह रही थी कि यह सब वृत्तांत मैंने राजा को ज्ञापित किया। अतः राजा ने स्वयंवर में आए हुए सर्वराजाओं को विदा किया। हे वीर! आज तुमने उस राजकन्या को हाथी के पास से छुड़ाया है इससे पूर्व की सब बात की प्रतीति हो गई है इसलिए आपको लाने के लिए मुझे भेजा है, अतः आप वहाँ पधारो और कन्या से विवाह करो। तब वसुदेव उसके साथ राजमंदिर मे गये और सोमश्री से विवाह कर उसके साथ यथच्छै क्रीड़ा करने लगे।
_ (गा. 401 से 411) एक बार वसुदेव सोकर उठे, तब वह मृगाक्षी राजबाला दृष्टिगत नहीं हुई। अतः करुणस्वर से रूदन करते हुए वे तीन दिन तक शून्य चित्त से राजमहल में ही बैठे रहे। तब शोकनिवारण के लिए वे उपवन में गये। वहाँ सोमश्री को देखकर वसुदेव ने कहा, अरे मानिनि! तू मेरे किस अपराध से इतनी देर तक चली गई थी? सोमश्री बोली हे नाथ! आपके लिए मैंने एक विशेष नियम लिया था। अतः तीन दिन तक मै मौन रही थी। अब इस देवता की पूजा करके आप पुनः मेरे साथ पाणिग्रहण करो। जिससे मेरा नियम पूर्ण हो क्योंकि इस नियम की ऐसी ही विधि है। तब वसुदेव ने वैसा ही किया। उसके पश्चात राजकन्या ने यह देव की इच्छा है ऐसा कहकर वसुदेव को मदिरापान कराया एवं कांदर्पिक देव की भांति उसके साथ अत्यंत रतिसुख भोगा। वसुदेव रात्रि में उसके साथ सोए। जब वे निद्रा में से जाग्रत हुए तब देखा तो उनको सोम श्री के स्थान पर दूसरी ही स्त्री दिखाई दी। जिससे वसुदेव ने उसको पूछा कि हे सुभ्र! तू कौन है ? वह बोली दक्षिण श्रेणी में आए सुवर्णाभ नाम के नगर में चित्रांग नाम का राजा है, उसके अंगारवती नाम की रानी है। उनके मानसवेग नाम का पुत्र है और वेगवती नाम की मैं पुत्री हूं। चित्रांग राजा ने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ली है। हे स्वामिन। उस मेरे भाई मानसवेग ने निर्लज्ज होकर आपकी स्त्री सोमश्री का हरण किया है। मेरे भाई ने रति के लिए मेरे पास अनेक प्रकार के चाटु वचनों द्वारा बहुत कहलाया। तो भी आपकी महासती स्त्री ने यह बात नहीं स्वीकारी। तब उसने मुझे सखी रूप में माना और आपको लेने के लिए यहाँ भेजा। मैं यहाँ आई और आपको देखकर काम पीडित हो गई। इसलिए मैंने यह कार्य किया है। अब
64
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)