________________
प्रसिद्धि पृथ्वी पर सर्वत्र होने लगी। अतः अनेक राजा एवं राजपुत्र कलाभ्यास करने लगे।
(गा. 369 से 375) अन्यथा जितशत्रु राजा ने प्रीतिमती का स्वयंवर रचा। नगर के बाहर मंडप बनवा कर उनमें अनेक मंच स्थापित किये। बड़े-बड़े राजा एवं राजपुत्रों को आमंत्रित किया गया। अपने पुत्र के वियोग से पीड़ित मात्र एक राजा हरिणंदी को छोड़कर सर्व भूचर और खेचर राजा अपने-अपने कुमारों को लेकर वहाँ आये। विमानों में देवताओं की तरह सर्व राजा-राजपुत्र मंच पर आरुढ़ हुए। उस समय दैवयोग से कुमार अपराजित भी घूमता-घूमता वहाँ आ पहुँचा। उसने मंत्रीपुत्र से कहा- हम यहाँ पर ठीक समय पर आ पहुँचे। तो अब कलाओं का विचार, उसका ज्ञान और उस कन्या का अवलोकन हम भी करें। परन्तु कोई परिचित व्यक्ति अपने को पहचाने नहीं, वैसे अपने को रहना चाहिए। ऐसा विचार कर उसने गुटिका का प्रयोग से अपना तथा मंत्रीपुत्र का रूप सामान्य मनुष्यों जैसा कर लिया। फिर दोनों देवताओं के सदश गुटिका से विकृत आकृति धारण करके स्वयंवर मंडप में आए। उस समय पृथ्वी पर मानो कोई देवी हो, अमूल्य वेश धारण करके, दोनों ओर जिसके चंवर दुलाएँ जा रहे, ऐसी सखियों एवं दासियों से परिवृत दूसरी लक्ष्मी के समान राजकुमारी प्रीतिमती वहाँ आई। अतः आगे चलने वाले आत्मरक्षक और छड़ीदारों ने लोगों को दूर हटाया। जब वह स्वयंवर मंडप में आई तब उसकी मालती नामक दासी अंगुली से ईशारा करते हुए बोली- हे सखी! ये भूचर और खेचर राजा अपने को गुणवान् मानते हुए यहाँ आए हैं। ये कदम्ब देश के भुवनचंद्र राजा हैं। ये वीर पृथ्वी पर प्रख्यात और पूर्व दिशा के अलंकार जैसे हैं। यह समरकेतु नाम के राजा हैं, शरीर की शोभा में कामदेव जैसे, प्रकृति से दक्षिण और दक्षिण दिशा के तिलक रूप हैं। कुबेर के सदृश कुबेर नाम के राजा उत्तर दिशा के शत्रुओं की स्त्रियों में अश्रांत और विस्तृत कीर्तिरूप लतावन को धारण करते हैं। कीर्ति से सोमप्रभा (चंद्रकीर्ति) को जीतने वाले ये सोमप्रभ राजा हैं। ये दूसरे धवल, शूर और भीम आदि बड़े-बड़े राजा हैं। ये मणिचूड़ नाम के महापराक्रमी राजा हैं। ये रत्नचूड नाम के राजा हैं, प्रबल भुजा वाले मणिप्रभ नाम के राजा हैं और इधर सुमन, सोम तथा सूर आदि खेचर राजा हैं। हे सखी! इन सब को देख और इनकी परीक्षा कर। ये सर्व कलाओं में पारंगत हैं।
(गा. 376-390)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)