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द्रव्य मैंने ब्याज पर लिया। उन्होंने मुझे बहुत रोका तो भी मैं उससे किराने का सामान वाहन में भरकर समुद्रमार्ग से चल दिया। अनुक्रम से यमुना द्वीप में आकर दूसरे अंतर्दीप और नगरों में गमना गमना करके मैंने आठ कोटि सुवर्ण उपार्जन किया। वह द्रव्य लेकर मैं जलमार्ग से ही स्वदेश की ओर चल दिया। मार्ग में मेरा जहाज टूट गया और मात्र एक पाटिया मेरे हाथ में आया। सात दिन में समुद्र को तैर कर मैं उदुंबरावती कुल नाम के समुद्र किनारे पहुँचा। वहाँ राजपुर नाम का एक नगर था। बड़ी मुश्किल से मैं वहाँ गया। उस नगर के बाहर एक बहुत झाड़ियों वाला उद्यान था, वहाँ जाकर मैं रहने लगा। वहाँ दिनकरप्रभ नाम का एक त्रिदंडी संन्यासी मुझे दिखाई दिया। उनके समक्ष मैंने अपना गौत्र आदि ज्ञापित किया, जिससे वह मुझ पर प्रसन्न हुये और मुझे पुत्रवत रखने लगे।
(गा. 213 से 222) एक दिन उस त्रिदंडी ने मुझे कहा कि तू द्रव्य का अर्थी लगता है, अतः हे वत्स! चल हम इस पर्वत के ऊपर चलें। वहाँ मैं तुझे एक ऐसा रस दूंगा कि जिससे तुझे इच्छा के अनुसार कोटि गम सुवर्ण की प्राप्ति हो सकेगी। उसके ऐसे वचन सुनकर मैं खुश होकर उसके साथ चला। दूसरे दिन अनेक साधकों से परिकृत एक महान अटवी में हम आ पहुँचे। उस गिरी के नितंब पर चढ गये। वहाँ बहुत यंत्रमय शिलाओं से व्याप्त और यमराज के मुख जैसा बड़ा गहरा दिखाई दिया। वह महागहरा गढ़ा दुर्गापताल नाम से प्रसिद्ध था। त्रिदंडी ने मंत्रोच्चार द्वारा उसका द्वार खोला। हमने उसमें प्रवेश किया। उसमें खूब घूमे तब एक रसकूप हमें दिखाई दिया। वह कूप चार हाथ लंबा चौडा था और नरक के द्वार तुल्य भंयकर दिखाई देता था। त्रिदंडी ने मुझ से कहा कि इस कूप में उतरकर तू तुबंड़ी में उसका रस भर ले। उसने रस्सी का एक छोर पकड लिया
और दूसरे छोर पर बंधी मंचिका पर बिठाकर मुझे कूप में उतारा। चार पुरुष प्रमाण मैं नीचे उतरा। उसके अंदर घूमती हुई मेखला और मध्य में रहा हुआ रस मुझे दिखाई दिया । उस समय किसी ने मुझे रस लेने का निषेध किया। मैंने कहा कि मैं चारूदत नामक वणिक हूं और भगवान त्रिदंडी ने मुझे रस लेने के लिए नीचे उतारा है, तो तुम मुझे क्यों रोकते हो। तब वह बोला कि मैं भी धनार्थी वणिक हूं और बलिदान के लिए पशु के मांस की तरह मुझे भी उस त्रिदंडी ने रस लेने के लिए रसकप में डाल दिया और फिर वह पापी चला गया। मेरी सर्व काया का इस रस से नाश हो गया है। इसलिए इस रस में तू हाथ डालना मत। मैं तुझे
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)