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उसे पार कर हम दोनों गिरिकूट गए और वहाँ से बरू के वन में आए। वहाँ से टंकण देश में आकर हमने दो मेढे लिए। उस पर बैठकर हमने अजमार्ग का उल्लंघन किया। वहाँ मुझे रूद्रदत ने कहा कि अब यहाँ से पैदल चल सकें ऐसा प्रदेश नहीं है, इसलिए इन दोनों मेढों को मारकर उनके अंतरभाग को बाहर लाकर उनकी दो धमण बनावें । वह ओढकर अपन इस प्रदेश में बैठ जायेंगे, तब मांस के भ्रम से भारंड पक्षी हम को उठाकर ले जायेंगे तो हम शीघ्र ही सुवर्ण भूमि में पहुंच जायेंगे। यह सुनकर मैंने कहा कि जिसकी सहायता से अपन ने इतनी महाकठिन भूमि को पार किया ऐसे बंधु समान इस मेंढे को कैसे मारा जाय ? यह सुनकर रुद्रदत्त ने कहा कि ये दोनों मेढे कोई तेरे नहीं है, तो मुझे तू उसे मारने से क्यों रोकता है? ऐसा कहकर उसने क्रोधित होकर तुरंत अपने एक मेढे को मार दिया। तब वह दूसरा मेंढा भयभीत दृष्टि से मेरे सामने देखने लगा । तब मैंने उसको मारते हुए कहा कि, मैं तेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हूं, अतः क्या करूँ ? तथापि महाफल देने वाले जैन धर्म की तुझे शरण हो, कारण कि विपति में यह धर्म पिता माता और स्वामी तुल्य है । उस मेंढे ने मेरे द्वारा काटा हुआ अपना मस्तक हिलाकर स्वीकार किया और मेरा सुनाया हुआ नवकार मंत्र समाहित मन से उसने सुना। रूद्रदत ने उसे भी मार डाला। वह देवयोनि में गया । हम दोनों छुरी लेकर उस खोल में बैठ गये। वहाँ दो भारंड पक्षियों ने हमको मांस की इच्छा से उठा लिया। मार्ग में दोनों भारंड पक्षियों में परस्पर युद्ध हुआ । उसके पैरों में से मैं छूट गया और एक सरोवर में आ गिरा । वहाँ छूरी से उस धमण को काटकर मैं बाहर निकला और सरोवर को तैर कर बाहर आया और आगे चल दिया ।
(गा. 247 से 258)
वहाँ एक बहुत बड़ा पर्वत मुझे दिखाई दिया। मैं उस पर्वत पर चढा, वहाँ मुझे कायोत्सर्ग में स्थित मुनि दृष्टिगोचर हुए। मैंने उनकी वंदना की तब धर्मलाभ रूपी आशीष देकर मुनि बोले अरे चारुदत्त ? तू इस दुर्गभूमि में कहाँ से आ गया? देव विद्याधर या पक्षी के बिना यहाँ कोई नहीं आ सकता । पूर्व में जो तूने मुझे छुड़ाया था वह मैं अमितगति विद्याधारक हूं। उस समय मैं वहाँ से उड़कर मेरे शत्रु के पीछे अष्टापद गिरी के समीप गया था । वहाँ वह मेरी स्त्री को छोडकर अष्टापद गिरी के उपर चला गया । वहाँ पर जौहर करने को तैयार हुई मेरी स्त्री को लेकर मैं मेरे स्थान पर गया । मेरे पिता ने मुझे राज्य देकर स्वयं ने हिरण्यकुभ
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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