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तेरे तुबंडी में रस भरकर दे दूंगा। पश्चात मैंने उसे तुंबी दे दी, तब उसने उसे भर दी और मेरी मंचिका के नीचे बांध दी। जब मैंने वह रज्जु हिलाई तब उस त्रिदंडी ने वह रस्सी खींची, अतः मैं कुएं के पाल के पास आया।
(गा. 223 से 236) उसने मुझे बाहर निकालकर मुझसे वह तुंबी मांगी। उस संन्यासी को परद्रोही और लुब्ध जानकर मैंने वह रस कुंए में ही डाल दिया। इससे उसने मंचिका सहित ही मुझे कुएं में ही डाल दिया। भाग्ययोग से मैं उस वेदी पर जा गिरा। तब उस निष्कारण बंधु ने कहा कि भाई! तू दुखी मत हो। तू रस के अंदर गिरा नहीं है, वेदी पर ही गिरा है यह भी ठीक हुआ। अब जब भी यहाँ गोह आएगी तब तू पूँछ के अवलंबन से कुए से बाहर निकल सकेगा। इसलिए उसके आने तक की राह देख। उसके वचनों से स्वस्थ होकर बारंबार नवकार मंत्र गिनता हुआ अनेक समय तक मैं वहाँ पर रहा। कुछ समय पश्चात उस पुरूष की मृत्यु हो गई। एक बार भंयकर शब्द मुझे सुनाई दिया, जिससे मैं चकित हो गया। परंतु उसे वचन याद आने से ख्याल आ गया कि यह शब्द गोह का होना चाहिए, वह इधर आ रही लगती है। क्षणभर में तो वह पराक्रमी गोह रस पीने को यहाँ आई, तब मैंने कसकर उसकी पूँछ दोनों हाथों से पकड़ ली। गाय के पूँछ के साथ लिपटा गोपाल जैसे नदी में से निकलता है उसी तरह मैं भी उस गोह की पूँछ को चिपकने से कुंए से बाहर निकल गया। बाहर आने पर मैंने उसकी पूँछ छोड़ दी, उस समय मैं मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। कुछ समय बाद होश में आने पर इधर उधर घूमने लगा। इतने में एक अरण्य जंगली महिष वहाँ आया, उसे देखकर मैं एक शिला के ऊपर चढ गया। वह महिष अपने उग्र सींगों से उस शिला को हिलाने लगा। इधर यमराज की बाहु जैसा एक सर्प वहाँ निकला। उसने उस महिष को पकडा। दोनों युद्ध में व्यस्त हो गए, तब मैं उस शिला से उतरकर भागा और दौड़ता दौड़ता अरवी के प्रांत भाग में आए हुए एक गांव में आया। वहाँ मेरे मामा के मित्र रूद्रदत ने मुझे देखा और मेरा पालन किया, फलस्वरूप मैं पुनः नवीन शरीर वाला हो गया।
(गा. 237 से 246) वहाँ से थोड़ा द्रव्य लेकर उससे अलता जैसा तुच्छ किराना लेकर मैं मातुल के मित्र के साथ सुवर्णभूमि की ओर चला। मार्ग में ईषुवेगवती नामक नदी आई।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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