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शंखकुमार ने उस दुर्ग में एक सामन्त को सारभूत सैन्य के साथ प्रवेश कराया और स्वयं अनेक सैनिको को साथ लेकर एक लतागृह में छिपा रहा। पीछे से पल्लिपति ने छल से उस दुर्ग को घेर लिया। पश्चात् अरे कुमार तू अब कहाँ जाएगा? ऐसा कहता हुआ वह पल्लिपति जैसे ही गर्जा वैसे ही छिपा हुआ कुमार बाहर आया। अपने विपुल सैन्य से उसे घेर लिया। एक तरफ से दुर्ग के किले पर रहे हुए पहले से भेजे हुए सैन्य ने और दूसरी तरफ से कुमार के सैन्य ने बीच में रहे हुए पल्लिपति को दुतरफा मार मारने लगे। घबरा कर पल्लिपति कंठ पर कुल्हाड़ी धारण करके शंखकुमार की शरण में आया और बोला- 'हे राजकुमार! मेरे माया मंत्र का प्रयोग जानने वाले तुम ही एक हो। हे स्वामिन्! सिद्ध पुरुष के भूत की तरह मैं भी तुम्हारा दास हो गया हूँ। अतः मेरा सर्वस्व ग्रहण कर लो एवं प्रसन्न होकर मुझ पर अनुग्रह करो।' कुमार ने उसके पास जो चोरी का धन था, वह सब लेकर जिसका जो था, सबको दे दिया तथा स्वयं लेने योग्य दंड स्वयं ने ले लिया। पश्चात् पल्लिपति को साथ लेकर कुमार वापिस लौट चला। सायंकाल होने पर मार्ग में उन्होंने पड़ाव किया। अर्धरात्रि को कुमार शय्या पर स्थित थे कि इतने में कोई कठोर स्वर उसे सुनाई दिया, तब हाथ में खड्ग लेकर स्वर का अनुसरण करके कुमार चल दिया। आगे जाने पर अघेड़वय की एक स्त्री उनको रुदन करती हुई दिखाई दी। अतः कुमार ने मृदु स्वर में उससे कहा कि- हे भद्रे! रो मत। तेरे दुःख का जो भी कारण हो वह कह कुमार की मूर्ति और वाणी से आश्वस्त होकर वह स्त्री बोली अंगदेश की चंपा नगरी में जितारी नाम का राजा है उसके कीर्तिमती नाम की रानी के बहुत से पुत्रों के पश्चात यशोमती नामकी स्त्रियों में शिरोमणि पुत्री हुई। उसके योग्य किसी स्थान पर पुरूष नहीं है। ऐसा जान वह पुरूष के ऊपर अरूचिवाली हो गई अतः उसकी दृष्टि में कोई भी पुरूष रूचता नहीं है। किसी समय श्रीषेण राजा का पुत्र शंखकुमार उसके श्रवणमार्ग में आने पर एवं कामदेव ने भी एक साथ उसके हृदय में स्थान जमाया। उस समय यशोमती ने प्रतिज्ञा की कि वह शंखकुमार से ही शादी करेगी? पुत्री का अनुराग योग्य स्थान पर हुआ है ऐसा जानकर उसके पिता को भी इस बात से बहुत हर्ष हुआ। जितारी राजा ने श्रीषेण राजा के पास उसके पास विवाह का प्रस्ताव लेकर अपने व्यक्तियों को भेजा। इतने में विद्याधरपति मणिशेखर ने उसकी कन्या की मांग की। जितारी राजा ने उससे कहा कि मेरी कन्या शंखकुमार के सिवा किसी को भी नहीं चाहती। इससे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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