________________
कहो। मुनि ने कहा – मैंने महादुर्लभ धर्म प्राप्त किया है उससे विशेष साररूप इस जगत में दूसरा कुछ भी नहीं है जो मैं तुमसे मांगू।
(गा. 30 से 46) ___ इस प्रकार मुनि के वचन सुनकर वह देव स्वर्ग में और मुनि अपने उपाश्रय में आए। अन्य मुनियों के पूछने पर गर्व रहित हो सब कह सुनाया। उसके पश्चात उन्होंने बारह हजार वर्ष तक दुस्तर तप किया और अंत समय में अनशन किया। इस दौरान उनको अपना दुर्भाग्य स्मरण हो आया। उस समय उन्होंने नियाणा किया कि इस तप के प्रभाव से मैं आगामीभव में रमणियों का अति वल्लभ अर्थात अति प्रिय स्वामी होऊँ। ऐसा निदान करके मृत्यु होने के पश्चात महाशुक्र देवलोक में देव बने। वहाँ से च्यवकर वह तुम्हारा पुत्र वासुदेव हुआ है। पूर्वभव में कृत नियाणो के कारण वह रमणियों को अतिवल्लभ है। यह सुन अंधकवृष्णि राजा ने समुद्र विजय को राज्य पर स्थापित कर स्वयं सुप्रतिष्ठत मुनि के पास दीक्षा लेकर मोक्ष में गये।
(गा. 47 से 51) इधर राजा भोजवृष्णि ने भी दीक्षा ली तो मथुरा में उग्रसेन राजा हुए। उनके धारिणी नाम की पटरानी थी। एक बार उग्रसेन राजा बाहर जा रहे थे कि मार्ग में एकांत में बैठे हुए किसी मासोपवासी तापस को उन्होंने देखा। तापस को ऐसा अभिग्रह था कि, मासोपवास के पारणे पर पहले घर में से ही भिक्षा मिले तो मासक्षमण का पारणा करना, न मिले तो दूसरे घर से भिक्षा लेकर पारणा नहीं करना। इस प्रकार मास मास में एक घर की भिक्षा से पारणा करके एंकात प्रदेश में जाकर वह रहता था। किसी के गृह में नहीं रहता। यह हकीकत सुन उग्रसेन राजा ने उनको पारणे का निमत्रण देकर राजमहल में बुलाया। तापस मुनि भी उनके पीछे पीछे आए। राजमहल में आकर राजा वह बात भूल गया। इसलिए उस तापस को भिक्षा ने मिलने से पारणा किये बिना वह पुनः अपने आश्रम में आ गया और दूसरे दिन में पुनः मासपक्षण अंगीकार कर लिया। अन्य किसी समय राजा फिर से उस स्थान की तरफ आये तब वहाँ वही तापस उनके नगर में आया। तब अपना पहले का निमंत्रण याद आने पर राजा ने खेद पूर्ण वचनों से उन्हें खमाया एवं पुनः उन्हें पारणे का निमंत्रण दिया। दैवयोग से फिर से पहले की जैसे भूल गये। अतः तापस क्रोधित हो उठा। फलस्वरूप इस तप के प्रभाव से
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
41