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बाल और ग्लान मुनियों की वैयावृति में कदापि प्रमाद और खेद न करने वाले उन नंदीषेण मुनि की इंद्र सभा में प्रशंसा की। इंद्र के वचनों पर श्रद्धा नहीं करने वाला कोई देव ग्लान मुनि का रूप बनाकर रत्नपुरी के समीपस्थ अरण्य में आया और अन्य साधु का वेश धारण कर नंदीषेण मुनि के स्थान में गया। जैसे ही नंदीषेण मुनि पारणा करने के लिए बैठे और कौर मुंह में ले रहे थे कि इतने में उस साधु ने आकर कहा कि अरे भद्र! साधुओं की वैयावृत करने की प्रतिज्ञा लेकर तू अभी कैसे खाने बैठा है ? नगर के बाहर अतिसार रोग से ग्रसित एक मुनि क्षुधा और तृषा से पीड़ित है। यह सुनते ही नंदीषेण मुनि आहार करना छोड़, उन मुनि के लिए शुद्ध पानी की खोज में निकले। उस समय उस देव ने अपनी शक्ति से सर्वत्र आहार निषेध कर दिया। परंतु उन लब्धि वाले मुनि के प्रभाव से उसकी शक्ति ज्यादा चली नहीं। फिर किसी स्थान से नंदीषेण मुनि ने शुद्ध पानी संप्राप्त किया। जैसे ही नंदीषेण मुनि उन ग्लान मुनि के पास पहुँचे, कि उन कपटी मुनि ने कठोर वाक्यों द्वारा उन पर आक्रोश किया अरे अधमा। मैं ऐसी अवस्था में यहाँ पड़ा हूँ और तू भोजन करने में लिप्त रहा। यहाँ शीघ्र क्यों नहीं आया? तेरी वैयावृत्य की प्रतिज्ञा को धिक्कार हो। नंदीषेण मुनि ने विन्रम भाव से कहा हे मुनि! मेरे अपराध को क्षमा करो। अभी मैं आपको ठीक कर देता हूँ। आपके लिए मैं शुद्ध निर्दोष पानी भी ले आया हूँ। पश्चात उनको जल पान करा कर उनको कहा आहिस्ता से थोड़ा बैठ जाइये तब तपाक से मुनि बोले अरे मूढ़। मैं कितना अशक्त हूँ, निर्बल हूँ क्या तुझे यह दिखाई नहीं देता। उनके ऐसे वचन सुनकर उन मायावी मुनि को अपने स्कंध पर उठाकर नंदीषेण मुनि चले। तब भी वह उन पर पग पग पर आक्रोश करते रहे। अरे दुष्ट! जल्दी जल्दी चलकर मेरे शरीर को हिलाकर क्यों पीड़ा दे रहा है। वास्तव में साधु की वैयावृति करनी हो तो अहिस्ता अहिस्ता चल। वह धीरे धीरे चल रहे थे कि उसदेवता ने उन पर विष्टा कर दी तिस पर बोले कि तू वेग भंग क्यों कर रहा है? इतना करने पर भी ओह। इन मुनि की पीड़ा कैसे दूर होगी? ऐसा सोचते हुए नंदीषेण मुनि ने उनके कटु वचनों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। उनकी इस प्रकार दृढ़ता देख उस देव ने विष्टा का हरण कर लिया, और दिव्य रूप से प्रकट होकर उनको तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया एवं इंद्र द्वारा की गई प्रशंसा की बात कही। उनको खमाकर कहा- हे महायोगी मैं तुमको क्या दूँ ?
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)