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रथ में बिठा दो। उसने उसे रथ में बिठा लिया। अनुक्रम से चलते हुए उनका गांव आया। वहाँ वसुदेव स्नानादि से निवृत हो भोजन करके सांयकाल किसी यक्ष के मंदिर में जाकर रहे।
(गा. 131 से 136) यहाँ मथुरा में वसुदेव कुमार ने अग्नि में प्रवेश किया यह खबर सुन परिवार सहित यादव रूदन करने लगे। उन्होंने वसुदेव की उत्तरक्रिया की। यह बात सुन वसुदेव निश्चिंत हो गए। चलते चलते वे विजय खेट नामक नगर में पहुंचे। वहाँ सुग्रीव नामक राजा था। उनके श्यामा और विजय सेना नामक दो कलाविद कन्याएं थी। वसुदेव में कला विजय के प्रण से दोनों कन्याओं के साथ विवाह किया। उनके साथ क्रीडा करते हुए वहाँ ही रहे। वहाँ विजय सेना के अक्रूर नाम का पुत्र हुआ। मानो दूसरा वसुदेव हो ऐसा वह लगता था। उन सबको वहीं छोड अकेले ही वहाँ से निकलकर एक घोर अटवी में आए। वहाँ तृषा से अभिभूत होकर जलावर्त नाम के एक सरोवर के पास आए। उसी समय एक जंगम विंध्याद्रि जैसा हाथी उनके सामने दौड़ता हुआ आया। वहाँ उसको खूब हैरान करके कुमार सिहं की भांति उस पर चढ बैठा। उनको हाथी पर बैठा देख अर्चिमाली और पवनंजय नाम के दो खेचर उनको कुंजरावर्त नाम के उद्यान में ले गए। वहाँ अशनिवेग नामक एक विद्याधर राजा था उन्होंने श्यामा नामकी अपनी कन्या को वसुदेव को दी वे उसके साथ वहाँ क्रीडा करने लगे। एक बार श्यामा ने ऐसी वीणा बजाई कि वसुदेव ने उससे संतुष्ट होकर वरदान मांगने को कहा। तब उसने वरदान मांगा कि मुझे तुम्हारा वियोग न हो वसुदेव ने पूछा कि ऐसा वरदान मांगने का क्या कारण है? तब श्यामा बोली वैताढ्यगिरी पर किन्नरगीत नामक नगर में अर्चिमाली नामक राजा था। उनके ज्वलनवेग
और अशनिवेग नामक दो पुत्र हुए। अर्चिमाली ने ज्वलनवेग को राज्य देकर व्रत ग्रहण किया। ज्वलनवेग के अर्चिमाला नामक स्त्री से अंगाकर नामक का पुत्र हुआ। और अशनिवेय के सुप्रभा रानी के उदर से श्यामा नाम की पुत्री हुई। ज्वलनवेग अशनिवेग को राज्य देकर स्वर्ग सिधाया। ज्वलनवेग के पुत्र अंगारक ने विद्या के बल से मेरे पिता अशनिवेग को निकालकर राज्य ले लिया। मेरे पिता अष्टापद पर गये, वहाँ एक अंगिरस नाम के चरणमुनि से उन्होंने पूछा कि मुझे राज्य मिलेगा या नहीं ? मुनि बोले- तेरी पुत्री श्यामा के पति के प्रभाव से तुझे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)