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को लेकर कंस मथुरा आया। वहाँ आकर क्रूर कंस ने अपने पिता उग्रसेन को बांधकर कारागृह में डाला और स्वंय मथुरा का राजा बना।
(गा. 95 से 107) उग्रसेन के अतिमुक्त आदि पुत्र भी थे। अतिमुक्त ने पिता के दुःख से दुःखित होकर दीक्षा ले ली। अपनी आत्मा को कृतार्थ मानने वाले कंस ने शौर्य नगर से सुमद्र वणिक को बुलाकर सुवर्णादिक के दान से उनका बहुत सत्कार किया। कंस की माता धारिणी ने अपने पति को छोड देने के लिए कंस को विनती की तथापि उसने किसी भी हिसाब से अपने पिता उग्रसेन को छोड़ा नहीं। धारिणी कंस के मान्य पुरूषों के घर जाकर प्रतिदिन कहती की कांसे की पेटी में डालकर कंस को यमुना नदी में मैंने जो बहा दिया था, उस बात की तो मेरे पति उग्रसेन को तो पता भी नहीं है, वे तो सर्वथा निरपराधी हैं, अपराधी तो मैं हूं, अतः मेरे पति देव को तुम छुडा दो। वे जब आकर कंस को कहते तो भी कंस ने उग्रसेन को छोड़ा नहीं, क्योंकि पूर्वजन्म में किया हुआ नियाणा कभी निष्फल नहीं होता।
(गा. 108 से 113) जरासंध ने समुद्रविजय का सत्कार करके विदा किया, वहाँ से वे शौर्यपुर नगर में आए। वसुदेव शौर्यपुर में स्वेच्छा से भ्रमण करने लगे। उनके सौंदर्य से मोहित होकर नगर की स्त्रियां मानो मंत्रमुग्ध हो वैसे उनके पीछे घूमने लगी। इस प्रकार स्त्रियों के लिए काम रूप जिनका सौंदर्य है ऐसे समुद्र विजय के अनुज बंधु वसुदेव कुमार इधर-उधर घूमते हुए अनंत काल तक निर्गमन करते रहे। एक बार नगर के महाजन लोगों ने आकर एकांत में कहा कि तुम्हारे लघु बंधु वसुदेव के रूप से नगर की सर्व स्त्रियां मर्यादा रहित हो रही हैं। जो कोई भी स्त्री वसुदेव को एक बार भी देख लेती है, तो वह परवश हो जाती है और कुमार को बार-बार नगर घूमते देखती हैं, तो उसकी तो बात ही क्या करनी? राजा ने महाजनों से कहा, मैं तुम्हारी इच्छानुसार बंदोबस्त करूँगा। ऐसा कहकर उसको बिदा किया। पश्चात् उन्होंने वहाँ स्थित लोगों में कहा कि यह बात कोई भी वसुदेव को मत कहना। एक दिन वसुदेव समुद्रविजय को प्रणाम करने आए तब वसुदेव को अपने उत्संग में बिठाकर राजा ने कहा हे कुमार! पूरे दिन नगर में बाहर पर्यटन करने से तुम कृश हो गये हो अतः दिन में बाहर न जाकर महलों में
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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