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सिंहरथ के दृढ़ रथ को चकनाचूर कर दिया। तब उसने कंस को मारने के लिए क्रोध से प्रज्वलित होकर म्यान में से खड्ग निकाला, उस समय वसुदेव ने क्षुरपु बाण से छलबल में उत्कट ऐसे कंस ने भेड को नाहर उठा ले वैसे ही सिंहरथ को बांधा और उठाकर वसुदेव के रथ में फेंका। उस समय सिंहरथ की सेना वहाँ से भाग गई अतः वसुदेव विजयी हो सिंहरथ को पकड कर अनुक्रम से अपने नगर में आये।
(गा. 88 से 94) राजा समुद्रविजय ने वसुदेव को एकांत में कहा कि क्रोष्टु की नाम के एक ज्ञानी महात्मा ने इस प्रकार के हित वचन कहे थे कि जरासंध की पुत्री जीवयशा कनिष्ट लक्षणवाली होने से वह पति और पिता दोनों कुलों का नाश करने वाली है इस सिंहरथ को पकड़कर लाने के बदले में जरासंध उस पुत्री को तुमको पारितोषिक रूप में देगा उस समय उसका त्याग करने का कोई उपाय पहले से ही सोच लेना तब वसुदेव ने कहा कि इस सिंहरथ को रज में युद्ध करके बांधकर लाने वाला कंस है अतः वह जीवयशा कंस को ही देना योग्य है तब समुद्रविजय ने कहा कि यह कंस वणिक पुत्र है तो उसे जीवयशा नहीं देगा, परंतु पराक्रम से तो वह क्षत्रिय जैसा ही लगता है। समुद्रविजय ने उस रसवणिक को बुलाकर धर्म को बीच में रखकर उसे कंस की उत्पति के विषय में पूछा। तब उसने कंस का. सर्व वृत्तांत अथ से इति तक कंस के समक्ष ही कह सुनाया। सुभद्र वणिक ने उग्रसेन राजा और धारिणी रानी की मुद्रिका और पत्रिका समुद्रविजय राजा को दी। समुद्रविजय ने वह पत्रिक पढी, उसमें लिखा था कि राजा उग्रसेन की रानी धारिणी ने भंयकर दोहद से भयभीत होकर अपने पति की रक्षा के लिए इस प्राणप्रिय पुत्र का त्याग किया है और नाममुद्रा सहित सर्व आभूषणों से भूषित ऐसे इस बलपुत्र को कासे की पेटी में डालकर यमुना नदी में प्रवाहित किया है इस प्रकार की पत्रिका पढकर राजा समुद्रविजय ने कहा कि यह महाभुज कंस यादव है और उग्रसेन का पुत्र है अन्यथा उसमें ऐसा वीर्य संभव नहीं हो सकता है। राजा समुद्रविजय कंस को साथ लेकर अर्धचिक्री जरासंध के पास गये और सिंहरथ राजा को उनको सौंपा। साथ ही कंस का पराक्रम भी बतलाया। जरासंध ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री जीवयशा कंस को दी। उस समय कंस ने पिता के रोष से मथुरापुरी की मांग की। अतः मथुरा भी कंस को दी। जरासंध प्रदत सैन्य
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)