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क्रोधित होकर उस अधम विद्याधर ने बलपूर्वक से उसका अपहरण किया। मैं उस यशोमति कन्या की धात्री हूं। जिसका अपहरण किया । तब मैं उसकी भुजा से लिपटी हुई थी पर उस दुष्ट खेचर ने बलपूर्वक मुझे उससे छुडा लिया संसार में सार रूप उस रमणी को वह दुष्ट न जाने कहाँ ले गया होगा ?
(गा. 462 से 488)
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उसकी यह हकीकत सुनकर भद्रे ! तू धैर्य रख मैं उस दुष्ट को जीत कर चाहे जहाँ से भी उसको लेकर आऊँगा । ऐसा कहकर शंखकुमार उसको खोजने के लिए अटवी में घूमने लगा। उस समय सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ हुआ और शंखकुमार भी किसी विशाल श्रृंगवाले गिरि पर आरूढ हुआ। वहाँ एक गुफा यशोमती उसको दिखाई दी । वह विवाह के लिए प्रार्थना करते हुए उस खेचर को इस प्रकार कह रही थी- अरे अप्रार्थित मृत्यु की प्रार्थना करने वाले ! तू किस लिए व्यर्थ में खेद करता है ? शंख जैसे उज्जवल गुण वाले शंख कुमार ही मेरा भर्ता है, कभी भी दूसरा मेरा भर्तार नहीं होगा । उसी समय उस विद्याधर और कुमारी ने शंखकुमार को देखा । इसलिए वह दुष्ट विद्याधर बोला- हे मूर्ख ! यह तेरा प्रिय काल से खिंचकर यहाँ मेरे वश में आ गया है। हे बाले । अब तेरी आशा के साथ ही उसको भी मारकर मैं तुझसे विवाह करूंगा और अपने घर ले जाऊँगा ।
(गा. 489 से 494)
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इस प्रकार कहते हुए उस दुष्ट को शंखकुमार ने सुनकर कहा अरे परनारी का हरण करने वाले दुष्ट पापी खडा हो । अभी इस खड्ग से तेरे सिर का छेदन कर देता हूँ। पश्चात् दोनों ही आमने सामने खड्ग लेकर सुंदर चालाकी से और धरती को कंपाते हुए युद्ध करने लगे। जब वह विद्याधर भुजा के बल से कुमार को जीत न सका, तब विद्या से विकुर्वित तप्त लोहमय गोले आदि अस्त्रों से युद्ध करने लगा । परंतु पुण्य के उत्कर्ष से वे गोले कुमार को कुछ भी घाव लगाने में समर्थ न हो सके। कुमार ने अपने खड्ग से उसके बहुत से अस्त्रों को खंडित कर डाला। अस्त्रों के खंडन से खेदित हुए खेचर का धनुष कुमार ने छेद डाला और उसके ही बाण से उसकी छाती को बींध डाला । तत्काल छेदे हुए वृक्ष की तरह वह विद्याधर पृथ्वी पर पडा तब शंखकुमार पवन के उपचार से उसे सचेत करके पुनः युद्ध के लिए ललकारने लगा । खेचरपति ने कुमार को कहा- हे पराक्रमी ! मैं
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व )
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