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साथ भी विवाह बंधन में बंधा श्री वासुपूज्य स्वामी के चैत्य की भक्तिपूर्वक यात्रा की। सभी खेचरों को विदा करके कुछेक दिन वहाँ रहकर यशोमती आदि पत्नियों के साथ हस्तिनापुर आया।
(गा. 514 से 518) अपराजित कुमार के पूर्व जन्म के अनुज बंधु सूर और सोम जो कि आरण देवलोक में उत्पन्न हुए थे वे वहाँ से च्यव कर यशोधर और गुणधर नाम से इस जन्म में शंखकुमार के अनुज बंधु हुए। राजा श्रीषेण ने शंखकुमार को राज्य देकर गुणधर गणधर के चरण में दीक्षा ली। जिस प्रकार श्रीषेण राजा मुनि होकर दुस्तर तप करने लगे उसी प्रकार शंख जैसे उज्जवल यश वाला शंखकुमार चिरकाल तक पृथ्वी का पालन करने लगे। जिनको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है
और देवता के सानिध्य से सुशोभित श्रीषेण राजर्षि विहार करते करते वहाँ पधारे। शंखराजा ये समाचार सुन कर सामने आए और भक्ति से उनकी वंदना करके संसार सागर में नाविक जैसी उनकी देशना श्रवण की।
(गा. 519 से 523) देशना के अंत में शंख राजा बोले – हे सर्वज्ञ! आपके शासन से मैं जानता हूँ कि इस संसार में कोई किसी का संबंधी नहीं है। यह संबंध केवल स्वार्थ का है तथापि इस यशोमती पर मुझे अधिक ममता क्यों हुई? वह मुझे कहिये और मुझ जैसे अनभिज्ञ को शिक्षा दीजिए। केवली भगवंत बोले, तुम्हारे धनकुमार के भव में धनवती नाम की यह तुम्हारी पनि थी। सौधर्म देवलोक में तुम्हारी मित्र रूप से उत्पन्न हुई, चित्रगति के भव में रत्नवती नाम की तुम्हारी प्रिया थी, महेंद्र देवलोक में तुम्हारी मित्र थी अपराजित के भव में यह प्रीतिमती नाम की तुम्हारी स्त्री हुई है। भवांतर के योग से तुम्हारा उस पर स्नेह संबंध हुआ है। अब यहाँ से अपराजित नाम के अनुत्तर विमान में जाकर वहाँ से च्यव कर इस भारतखंड में तुम नेमिनाथ नाम के बाइसवें तीर्थकर होआगे। यह यशोमती राजीमती नाम की अविवाहित रूप में अनुरक्त तुम्हारी पत्नी होगी जो तुम्हारे पास दीक्षा लेकर अंत में परम पद को प्राप्त करेगी। यशोधर और गुणधर नाम के तुम्हारे अनुज बंधु और मतिप्रभ मंत्री तुम्हारे गणधर पद को प्राप्त करके सिद्धिपद को पायेंगे।
(गा. 524 से 531)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)