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किसी से भी जीता नहीं गया था आज तूने जीत लिया। अतः तू सर्वथा मान्य पुरूष है। हे वीर! जैसे तुमने गुण से इस यशोमती को खरीद लिया है, उसी प्रकार मैं भी तेरे पराक्रम से तुम्हारा प्रीति दास हो गया हूं। अतः मेरे अपराध को तुम क्षमा करो। तब कुमार बोला- हे महाभाग! तेरे भुजबल से और विनय से मैं रंजित हुआ हूँ। इसलिए कहो मैं तुम्हारा क्या कार्य करूँ ? विद्याधर बोला- यदि तुम प्रसन्न ही हुए हो तो वैताढ्यगिरी पर चलो, वहाँ सिद्धायतन की यात्रा होगी
और मुझ पर अनुग्रह होगा। शंखकुमार ने उसे स्वीकार कर लिया। यशोमति इस श्रेष्ठ भर्तार को मैंने वरा है यह जानकर मन में अत्यंत खुशी हुई। उस समय मणिशेखर के खेचर यह वृतांत जानकार वहाँ आए और उपकारी शंखकुमार को नमस्कार किया। पश्चात् दो खेचरों को अपने सैन्य को शीघ्र ही हस्तिनापुर जाने का आदेश दिया।
(गा. 495 से 507) यशोमती की घात्री को खेचरों के साथ वहाँ बुलाकर धात्री और यशोमती सहित शंखकुमार वैताढ्य गिरी पर आए। वहाँ सिद्धायतन में रहे हुए शाश्वत चैत्यों की वंदना की और यशोमती के साथ विविध प्रकार से पूजा की। बाद में मणिशेखर कुमार को कनकपुर में ले गया। अपने घर में कुसम को रखकर देवता की भांति उसकी पूजा भक्ति की। सभी वैताढ्य वासियों को यह बात सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ अतः आ आकर शंखकुमार और यशोमति को बार बार देखने लगे। शत्रुजय आदि मूल्य से प्रसन्न हुए महर्दिक खेचर शंखकुमार के पदाति होकर रहे और अपनी अपनी पुत्रियाँ शंखकुमार को देने लगे तब कुमार ने उनको कहा कि यशोमति से विवाह करने के पश्चात इन कन्याओं के साथ विवाह करूँगा।
(गा. 508 से 513) एक बार मणिशेखर आदि अपनी अपनी कन्याओं को लेकर यशोमती सहित शंखकुमार को चंपा नगरी ले गए। अपनी पुत्री के साथ अनेक खेचरेन्द्रों से परिकृत उसका वर आ रहा है यह समाचार सुनकर जितारी राजा अत्यंत खुश हुआ और सामने आया। प्रसन्न होकर शंखकुमार का आलिंगन करके राजा ने उन सबका नगरी में प्रवेश कराया। महोत्सव पूर्वक अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया। तत्पश्चात् शंखकुमार विद्याधरों की अन्य कन्याओं के
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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