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शस्त्र उठाकर, कवच पहनकर युद्धांरम्भ की तैयारी करने लगे। तब अपराजित कुमार उछलकर किसी गजसवार को मारकर हाथी पर चढ़ गया और उसके ही अस्त्रों से युद्ध करने लगा। तत्क्षण किसी रथी को मारकर उसके रथ में बैठकर युद्ध करने लगा। कभी भूमि पर, कभी हस्ति पर चढ़कर युद्ध करने लगा। वह एक होने पर भी चपलता से अनेक की तरह इंद्र के वज्र की भांति अत्यन्त स्फुरणामान हुआ। उसने क्रोधातुर हो शत्रु के सैन्य को भग्न कर दिया। प्रथम तो स्त्री को शास्त्र से पश्चात् अनेकानेक राजाओं को शस्त्र से जीत लिया। लज्जा से सभी राजा युद्ध करने आए तो यकायक वह कुमार उछलकर सोमप्रभ राजा के हाथी पर चढ़ गया। उसी समय सोभप्रभ राजा ने कितनेक लक्षणों से युक्त और तिलकादिक चिह्नों से कुमार को पहचान लिया और तत्काल ही उस महाभुज का आलिंगन किया, और कहने लगा 'अरे अतुल' पराक्रमी भानज! पुण्ययोग्य से मैंने तुझे पहचान लिया। सभी राजाओं ने हर्षित होकर बधाई दी। सभी स्वजन की भांति हर्ष से विवाहमंडप में आए। शुभुहूर्त में जितशत्रु राजा ने अपराजित कुमार और प्रीतिमती का विवाह उत्सव किया। अपराजित कुमार ने अपना स्वाभाविक मनोज्ञ रूप प्रकट किया। सर्वजन उसके रूप और पराक्रम से अनुरक्त हुए। जितशत्रु राजा ने सर्व राजाओं का योग्य सत्कार करके उन्हें विदा किया। अपराजित कुमार प्रीतिमती के साथ क्रीड़ा करता हुआ अनेक दिन वहाँ रहा। जितशत्रु राजा के मंत्री ने अपनी रूपवती कन्या का मंत्रीपुत्र विमलबोध के साथ विवाह किया। इसलिए वह भी उसके साथ क्रीड़ा संलग्न हो आनंद से रहने लगा।
(गा. 391 से 418) हरिणंदी राजा का एक दूत वहाँ आया। कुमार ने उसको देखकर सप्रेम उनका आलिंगन किया। कुमार ने माता-पिता की कुशलता पूछी। तब दूत नेत्र में अश्रुलाकर बोला- 'तुम्हारे माता-पिता तो शरीर धारण करने मात्र से ही कुशल हैं। क्योंकि तुम्हारे प्रवास दिन से लेकर आज तक उनके नेत्र अश्रुओं से पूर्ण हैं। तुम्हारा नया-नया चरित्र लोगों से श्रवण कर क्षणभर के लिए तो खुश हो जाते हैं, फिर तुम्हारा वियोग याद आने पर मूर्छा आ जाती है। हे प्रभो! तुम्हारा यहाँ का वृत्तांत सुनकर उसकी वास्तविकता जानने के लिए मुझे यहाँ भेजा है। तो अब तुम्हें माता-पिता को वियोग का संताप देना उचित नहीं। दूत के इस प्रकार के वचन सुनकर नेत्र में अश्रु लाकर गद्गद् स्वरों से कुमार
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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