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१६ | तीर्थंकर महावीर
___ यह शुभ संवाद सुनते ही मरीचि खुशी के आवेश में बांसों उछला । ताली पीटता हुआ वह क्षण भर अपना आपा भूल गया और उन्मत्त की भांति नाचने लगा। भुजाएँ ऊ ची उठाकर वह तार स्वर से बोला-"अहा ! मैं महान हैं। मेरा कूल महान है । मेरे पितामह पहले तीर्थंकर ! मेरे पिता पहले चक्रवर्ती और मैं, मैं पहला वासुदेव बनू गा । फिर चक्रवर्ती सम्राट बनूंगा और फिर अंतिम तीर्थंकर मैं बनेगा ! आज संसार में है कोई मेरे समान भाग्यशाली ! गौरवशाली ! महान !!" भुजाएं बार-बार ऊपर-नीचे करता हुआ, तालियां पीटता हुआ, मरीचि बहुत देर तक हर्ष में नाचता रहा।
साधना में अहंकार जहर है, भले ही वह किसी भी विषय का हो। अपने कुल व अपने भाग्य का अति अंहकार आ जाने से मरीचि ने सचमुच में अपने आप को नीचे गिरा दिया । सहज साधना से प्राप्त उपलब्धियां अहंकार से ग्रस्त हो गई।
भगवान ऋषभदेव के परिनिर्वाण के पश्चात् भी मरीचि उपदेश देकर लोगों को श्रमणों के पास भेजता रहा। बीमारी एवं बुढ़ापे में जब स्वयं उसे सेवा की अपेक्षा हुई तो उसने कपिल नाम के एक राजकुमार को अपना शिष्य बनाया।
क्रोध से तप नष्ट
धर्मग्रन्थों में स्वर्ग एवं नरक के चाहे जितने रमणीय एवं बीभत्स वर्णन किये हों, उनका लक्ष्य एक ही है- पुण्य एवं पाप का फल बताना। स्वर्ग और नरक .. भोगभूमि है, वहां आत्मा अपने सच्चरित्र एवं दुश्चरित्र से अजित पुण्य-पाप का फल भोगता है। एक प्रकार से शुभ एवं अशुभ के भार से मुक्त होता है, पुराना कोश रिक्त करता है और फिर नया शुभाशुभ अर्जित करने के लिये मानव देह में जन्म धारण करता है। नयसार की आत्मा ने स्वर्ग में पुण्य भोगकर मरीचि के रूप में एक राजकुमार का वैभव पाया, और वहां तप-संयम की साधना कर ब्रह्म स्वर्ग में गया और वहाँ से पुन: मानवजन्म लिया।
पांचवें भव में कोल्लाकसनिवेश में एक ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ। वेदों का गहन-गम्भीर अध्ययन किया । जीवन के अन्तिम भाग में संन्यास (त्रिदण्डी धर्म) ग्रहण किया (चकि मरीचि के भव से साधना व संन्यास के संस्कार उसमें जमे हुये
१ विषष्टिः पर्व १०, सर्ग १