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१४ | तीर्थकर महावीर
सरलता का पुरस्कार
भगवान ऋषभदेव इस युग (अवसर्पिणी काल) के प्रथम तीर्थंकर हुये। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती थे । चक्रवर्ती भरत के अनेक पुत्रों में एक विशिष्ट तेजस्वी पुत्र था मरीचि।
भगवान ऋषभदेव का प्रथम समवसरण अयोध्या में रचा गया ।उनकी दिव्य देशना सुनने के लिये मानव ही क्या, स्वर्ग के असंख्य-असंख्य देव भी विनीता नगरी में एकत्रित हो रहे थे । मरीचि कुमार भी उस समवसरण में पहुंचा। प्रभु का धर्मोपदेश सुनकर उसका मन प्रतिबुद्ध हो उठा। पिता की अनुमति लेकर वह मुनि बन गया । मरीचि बड़ा तीक्ष्णबुद्धि वाला था, शीघ्र ही वह अनेक शास्त्रों का रहस्यवेत्ता बन गया। प्रारम्भ में वह निस्पृह व कठोर साधना में रुचि रखता था । किन्तु धीरेधीरे शरीर के प्रति ममत्व जगने लगा, कष्टों से वह घबराने लगा। एक बार भयंकर ग्रीष्मऋतु में गर्मी व प्यास आदि परीषहों से वह व्याकुल हो उठा। उसे लगा"उसका सुकुमार शरीर इन दारुण कष्टों को सहने में असमर्थ है।" वह असमंजस में पड़ गया-इधर नाग, उधर नदी । कठोर संयम उससे पल नहीं सकता, यदि छोड़कर गृहस्थ-जीवन में पुनः जाता है तो किस मुह से ? आखिर उसने एक रास्ता निकाला । अपने पूर्व जीवन के नियमों में उसने परिवर्तन किया - कंद-मूल खाना, नदी आदि का कच्चा जल पीना, जूते पहनना, जटा धारण करना, रंगीन वस्त्र पहनना, स्नान करना आदि । इस प्रकार वेष एवं नियमों में परिवर्तन कर मरीचि ने साधना का एक सरल मार्ग खोज निकाला। कठोर त्याग और अनियमित भोग के दोनों किनारों के बीच वह एक नवीन मार्ग पर चलने लगा। जन-परम्परा के अनुसार परिव्राजक परम्परा का आदि पुरुष यही मरीचि था।'
१ आचार्य हेमचन्द्र, गुणचन्द्र आदि चरित्र लेखकों ने मरीचि के नवीन आचरण को काव्यात्मक शैली में इस प्रकार बताया है भगवान ऋषभदेव मोहरूपी आच्छादन (आवरण) से मुक्त थे, किन्तु मरीचि ने अपनी मोहावृत्तता प्रकट करने के लिये, छत्र धारण किया । ऋषभदेव शील आदि सहज गुणों के कारण निर्मल, विशुद्ध तथा स्वतः सुगन्धमय थे किन्तु मरीचि ने अपने शरीर की अशुद्धि दूर करने के लिये स्नान करना तथा चन्दन आदि के तिलक से उसे सुगन्धित करना आरम्भ किया। ऋषभदेव कषायरहित थे, किन्तु मरीचि ने अपनी सकषायता व्यक्त करने के लिये काषाय (भगवां) वस्त्र धारण किया । ऋषभदेव मन, वचन, काया के दण्ड से सर्वथा मुक्त थे, मरीचि ने अपनी त्रिदंड-सहितता जताने के लिये