________________
१२ | तीर्थकर महावीर
अतिथि-सेवा का दिव्यफल
यह घटना अतीत की ! वर्ष और शताब्दी का कोई लेखा इसके साथ नहीं है। सिर्फ एक घटना है, कभी भी घटी हो, किन्तु जिस दिन भी यह घटी है, एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया है, एक यात्री की यात्रा का मार्ग ही बदल गया है, अनन्त अतीत से भटकती हुई एक आत्मा ने सही मार्ग और सही दिशा प्राप्त कर ली उस दिन । उसके भीतर का सुप्त जिनत्व उस दिन से अपने मूल रूप में प्रकट होना प्रारम्भ हो गया है - उस ऐतिहासिक दिन की यह एक घटना है।
नयसार नाम का एक ग्रामचितक था। गांव का वही मुखिया था, गांव के सुखदुःख की चिन्ता उसकी अपनी चिन्ता थी, इसलिए उसका नाम वास्तव में ही ग्रामचिंतक - (ग्राम की चिंता करनेवाला) सार्थक था।
नयसार जिस प्रदेश में रहता था, वहाँ इमारती लकड़ियों के घने जंगल थे। एक बार वह अनेक कर्मकरों को साथ लेकर लकड़ी काटने के लिये जंगल में गया । मध्याह्न के समय जब धूप तेज हो गई और कर्मचारी भूख-प्यास से पीड़ित हो गये, तो नयसार ने सबको भोजन व विश्राम की छुट्टी दे दी । नयसार भी हाथ-मुह घोकर एक सघन छायादार वृक्ष के नीचे भोजन करने बैठा। भोजन के समय "पहले किसी अतिथि को खिलाकर फिर स्वयं खाना"- यह नयसार का नियम था। आज घने जंगल में उसे कोई अतिथि नहीं मिला, इसलिये खाने को बैठकर भी वह अतिथि की इन्तजार में इधर-उधर की राहों पर दूर-दूर तक नजर दौड़ाने लगा।
सच्ची इच्छा अवश्य फलती है। इधर-उधर देखते हुए नयसार को कुछ श्रमण आते दिखाई दिये । नयसार का हृदय खिन्न उठा, वह कुछ कदम श्रमणों के सामने गया । श्रमण धूप व भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे । नयसार ने उन्हें शीतल छाया में बैठने का आग्रह किया। विश्रान्ति लेने के बाद नयसार ने पूछा---'आर्य ! आप इस बीहड़ जगल में किधर से आ रहे हैं ?"
श्रमणों ने कहा-"आयुष्मन् ! हमें अमुक नगर को जाना था, किन्तु रास्ता भूल गये, उत्पथ में चल पड़े, प्रातःकाल से अब तक चले आ रहे हैं।"
___ "आर्य ! इस जंगल में तो कहीं आपको भोजन भी नहीं मिला होगा ?"नयसार ने पूछा।
"आयुष्मन् ! श्रमण भोजन और पानी तभी ग्रहण करते हैं जब उन्हें अपने नियम के अनुकूल शुद्ध व निर्दोष प्राप्त हो। फिर इस घने जंगल में तो भोजन और