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१० | तीर्थकर महावीर प्रस्तुत उपक्रम
प्रस्तुत पुस्तक में हम तीर्थंकर महावीर का जीवनवृत्त लिखने जा रहे हैं। इस लेखन में घटनाओं को समझने में इतिहास जहां तक हमारा साथ देता है, दे, उसके आगे पुराणों, प्राक्तन जीवनग्रन्थों का चश्मा लगाकर भी उस महामानव के महातिमहान दिव्य स्वरूप को देखना है, इतिहासातीत गहराई में उतर कर उस जीवन की भव्य, मनोरम एवं प्रेरणादायी झांकी पानी है। क्षमा, तप, त्याग, दया, धैर्य, सहिष्णुता, उत्सर्ग की विविध साधनाओं को समझना है और जीवन में उसे जागृत करने की कला सीखनी है । इस दृष्टि को स्पष्ट करके हम जैनधर्म के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के दिव्य जीवन को घटना प्रसंगों को और उनकी लोकमंगलकारी वाणी को प्रस्तुत कर रहे हैं।
जिनत्व की उदात्त साधना
साधना से सिद्धि मिलती है-इस बात में कोई दो मत नहीं हो सकते । जिस जीवन के पीछे जितनी गहरी साधना होती है, वह जीवन उतना ही विराट् एवं तेजस्वी होता है। आत्म-साधना के मार्ग पर चलता हुआ अपना विकास करता है, उत्कर्ष को साधता है, और धीरे-धीरे सिद्धि के द्वार पर पहुँच जाता है। साधना का मार्ग एक प्रकार का आध्यात्मिक विकास का मार्ग है, आन्तरिक उत्कर्ष का मार्ग है।
भौतिक जगत में डाविन का सिद्धान्त विकासवाद के नाम से प्रसिद्ध है। उसने कीट-पतंग से बन्दर, और बन्दर से मानव तक की विकास-कल्पना की, किन्तु मानव में आकर उसकी विकासप्रक्रिया अवरुद्ध हो गई है। शायद मानव से बढ़कर
और कोई श्रेष्ठ जीव उसकी कल्पना में नहीं आया होगा । सम्भव है डार्विन जैसा विकासवादी यदि जैनधर्म की आध्यात्मिक विकास प्रक्रिया के सम्पर्क में आया होता तो वह भी मानव से महामानव तक की आध्यात्मिक विकासयात्रा में जैन विचार का प्रबल समर्थक और सहयात्री बन जाता।
जैनधर्म जीव के लैंगिक एवं भौतिक परिवर्तन तक ही आकर नहीं अटक जाता, वह उसके अन्तर्जगत् में आध्यात्मिक परिवर्तन की कल्पना भी करता है । वह मानता है, प्राणी के अन्तर्जगत् में आध्यात्मिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया सतत चालू रहती है, वह प्रक्रिया कभी विकास की ओर, तो कभी ह्रास की ओर उसे ले जाती है। ह्रास से फिर विकास की ओर बढ़ती है। गति का जब सही मार्ग मिल जाता