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साधना की पूर्व भूमिका | १३ पानी की बात ही क्या-विधान्ति के लिये भी कहीं नहीं रुके हैं-अभी मार्ग का अता-पता भी नहीं है।"
नयसार ने अपनी शुद्ध, सात्विक भोजन सामग्री की ओर इशारा करके कहा"आर्य ! मेरे पास यह शुद्ध, सात्विक भोजन तैयार है । और आज मुझे अभी तक किसी अतिथि का लाभ भी नहीं मिला है, अत: आप कृपा करके मुझसे कुछ भिक्षा लीजिए।"
मुनियों ने नयसार से भिक्षा ग्रहण की । नयसार की आत्मा अत्यन्त प्रसन्न थी, आज उसने त्यागी, तपस्वी महान् अतिथियों को भिक्षा दी, उसकी आत्मा का कणकण पुलक रहा था।
भोजन प्राप्त कर श्रमणों के हृदय को भी बड़ी तप्ति व शान्ति मिली। शुद्ध व सात्विक दान, दाता और आदाता-दोनों को ही प्रसन्नता देता है।
कुछ समय धूप टाल कर मुनि आगे नगर की ओर बढ़ने लगे । नयसार दूर तक उनके साथ गया, रास्ता बताने के लिये । जब वह लौटने लगा तो मुनियों ने दो क्षण रुककर उससे पूछा-"भाई, कुछ धर्म-कर्म करते हो ?"
नयसार लज्जित-सा होकर बोला-'आर्य ! अतिथि-सेवा तो जरूर करता हूं, इसके आगे धर्म-कर्म का ज्ञान मुझे नहीं है। आप जैसे सत्पुरुषों का यह सत्संग भी जीवन में पहली बार ही मिला है।"
नयसार की सरलता, विनम्रता व पात्रता देखकर मुनियों ने कहा-"तुमने सहज श्रद्धा के साथ हमें दान दिया, और नगर का रास्ता बताया है, अब तुम भी हमसे कुछ लाभ प्राप्त करो, आत्म-विकास का मार्ग जान सको तो अच्छा हो ।"
मुनि के सरल हृदयग्राही उपदेश का नयसार के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। मुनियों के मुख से मद्बोध सुन उसे कुछ अभूतपर्व दृष्टि मिल गई, हृदय में प्रकाशसा जग गया। मुनि आगे चले गये। कुछ ही क्षण का सत्संग नयसार के जीवन को बदल गया, उसके जीवन की दिशा ही बदल गई, फिर दशा तो बदलनी ही थी। दृष्टि बदली तो सृष्टि भी बदल गई। नयसार को उसी दिन आत्मा और शरीर का भेद-विज्ञान मिला, स्वयं के महान अस्तित्व का सच्चा बोध हुआ। जैन परिभाषा में उसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त हुई।
भगवान महावीर की जिनत्व यात्रा का यही प्रथम पड़ाव माना गया है।
१ नयसार की आत्मा आयु पूर्ण कर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुई और वहां से चक्रवती भरत के पुत्र
मरीचि के रूप में जन्म लिया। २ विषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व १०, सर्ग १