Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
( २६
आदिक यानी स्थिति पड जाना और रस देनेकी शक्ति यों स्थिति और अनुभाग पर्यायोंसे चारों ओर घेर लिये गये कर्मयोग्य पुद्गलों करके जो आत्मा का बंध जाना है. वह स्थिति आदिक से विशेषित हो रहा स्थितिबंध और अनुभागबंध हैं, यों सूत्रोक्त विषय की युक्तियों से सिद्धि हो जाती है ।
बंधस्य भेदादेवं हि बंधो भिद्यते नान्यथा बद्धव्यानि च कर्मारिण प्रकृत्यावस्थितानि प्रकृतिबंधव्यपदेशं लभते । तान्येवात्मप्रदेशवृत्तीनि प्रदेशबंधव्यपदेशं । समयाद्र्ध्वस्थिति पर्ययाक्रान्तानि स्थितिबंधव्यपदेशं । फलदानप्र शक्तिलक्षणानुभवपर्ययाक्रान्तान्यनुभवबंधव्यपदेशमिति शोभनं सूत्रिताः प्रकृत्यादिविधयो बंधस्य । तत्र योगनिमित्तौ प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्य - arat कषाय हेतुकौ । आद्यो द्वेधा मूलोत्तरप्रकृतिभेदात् ॥
बंध के भेद से इस प्रकार ही बंध भिन्न भिन्न हो रहा है । इनको चार छोडकर अन्य प्रकारोंसे बध के भेद नहीं नियत हैं, आत्माके साथ बंधने योग्य कर्म ही प्रकृति अवस्थामे प्राप्त हो रहे सन्ते प्रकृतिबंध इस नाम को प्राप्त कर लेते हैं । "भावेन भाववतोभिधानं " इस नियम अनुसार प्रकृतिबंध में प्रकृतिका अर्थ ज्ञान नादिका आवरण कराने की प्रकृति को धारनेवाले प्रकृतिवान्का बंध जाना है | और वे ही कर्म अनन्तानन्त स्वकीय प्रदेश परमाणुओं की संख्या अनुसार आत्माके असंख्यात प्रदेशों पर बर्तते हुये एकक्षेत्र विगाह होते हैं, तब वे ही समयसे प्रारम्भ कर दो, तीन, चार आक्रान्त हो जाते हैं, तो वे
कर्म प्रदेश बंध नामसे व्यवहार प्राप्त हो जाते है । तथा एक सौ, संख्यात, असंख्यात समयों तक की स्थिति परिणति से आत्मस्थ कर्म स्थितिबंध नाम को पा जाते हैं । एवं वे ही बंध रहे पौद्गलिक कर्म उसी समय आत्मा को फल देने की प्रकर्ष शक्तिस्वरूप अनुभव पर्यायसे आक्रान्त हो जाते हैं, तो अनुभाग बंध इस व्यपदेशको धार लेते हैं । कर्मनामक अशुद्ध द्रव्यमे उसी समय प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशों स्वरूप परिणतियां उत्पन्न हो जाती है जैसे कि खाये हुये अन्न मे तत्काल ही उदराग्नि, शक्ति, देश, काल, प्रकृति अनुसार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश, परिणतियां उद्भूत हो जाती है । खिचडीकी प्रकृति लघुपाचन है । दो घंटे मे पच जायेगी, शरीर मे हलकापन बनाये रक्खेगी, पावसेर खिचडीमे परमाणु थोडे हैं, जब कि पावसेर खीरमे उससे कई गुने पौष्टिक स्कन्ध प्रविष्ट हो रहे हैं, उदरमे जाकर अन्नका कारणों के वश उत्कर्षरण, विसंयोजन, उदीरणा आदि हो जाते हैं । उसी प्रकार कर्मोंकी भी दशायें सम्भवती रहती है, स्थितियां भी न्यून, अधिक, हो जाती है, अनुभाग शक्तियोंके भी घात या प्रकर्ष हो जाते हैं । चारित्र मोह - नीय या दर्शन मोहनीय एवं चारों आयुष्योंको छोडकर तुल्यजातिवाली उत्तर प्रकृतियों का