Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
(७२
ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। सुगंध, माला, स्नान करना, खाना, पोना, आदिक एकबार भोगकर त्यागने योग्य पदार्थों में भोग का व्यवहार है और पलंग, स्त्री, हाथी, घोडे, रथ, आदि में उपभोग करने का व्यवहार है यों गंध आदि और शयन आदि भेदों से उन भोग और उपभोग में स्पष्ट रूप से भेद की सिद्धि हो रही है। यहाँ कोई युक्तिबादी तर्क उठाता है कि किस प्रमाण से वे दान आदि में विघ्न डालने वाले दानान्तराय आदि पांच कर्म सिद्ध हो रहे हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अगली वार्तिक को कह रहे हैं।
दानादीनां तु पंचानामंतरायाः प्रसूत्रिताः।
पंच दानादिविघ्नस्य तत्कार्यस्य विशेषतः ॥१॥
दान, लाभ, आदि पांच सत्क्रियाओं के अन्तराय हो रहे पांच कर्म तो उमास्वामी महाराज ने इस सूत्र में प्रमाण सिद्ध हो रहे ही गूंथे हैं (प्रतिज्ञा) उनके पांच दान आदि में विघ्न कर देना स्वरूपकार्यकी विशेषताओं की उपलब्धि होने से (हेतु)। अर्थात् दानादि के यथोचित कारण मिलाने पर भी विघ्न पड़ जाते हैं। अनेक स्थलों पर बहिरंग कारण कोई दीखते नहीं हैं। अतः विघ्न डालने वाले अंतरंग कर्मों की अनुमान प्रमाण से सिद्धि हो जाती है।
उक्तमेव प्रकृतिबंधप्रपंचमुपसंहरन्नाहः
पूर्व में कहें जा चुके ही प्रकृतिबंध के विस्तार का उपसंहार करते हुये, ग्रेन्थकार अगली वातिक को कह रहे हैं ।
एवं प्रकृतिभिबंधः कर्मभिर्विनिवेदितः। -
श्राद्यः प्रकृतिबंधोत्र जीवस्यानेकधा स्थितः ॥२॥
इस प्रकार इस आठवें अध्याय के आदि भाग में ज्ञान आदि का आवरण करने वाली ज्ञानावरण आदि कर्मप्रकृतियों के साथ आत्मा का बंध हो जाना सूत्रकार ने विशेषरूपेण निवेदन कर दिया है। इन चार बंधों में आदि का प्रकृतिबंध तो जीव के अनेक प्रकार हो रहा व्यवस्थित है। जीव के साथ परतन्त्रता को करनेवाले विजातीय द्रव्य का बंध हो रहा युक्तिसिद्ध है। अनेक दार्शनिक इस कर्मसिद्धान्त को मानने के लिये सहर्ष तैयार हैं। गोताकार ने इसे अभीष्ट किया है । यौगदर्शन तो कर्म, पंच महाव्रत, ध्यान आदि अनेक मन्तव्यों को स्वीकार करता है।