Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 478
________________ दशमोऽध्यायः क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनांतरसंख्याल्प बहुत्वतः साध्याः ॥ ९ ॥ १ क्षेत्र २ काल ३ गति ४ लिंग ५ तीर्थ ६ चारित्र ७ प्रत्येकबुद्ध बोधितबुद्ध ८ ज्ञान ९ अवगाहना १० अन्तर ११ संख्या १२ अल्पबहुत्व, इन बारह अनुयोगों करके सिद्ध जीवोंका विभिन्न प्रकारोंसे चिन्तन करना चाहिये । भावार्थ--नैयायिकोंने सम्पूर्ण मुक्त जीवोंकों सर्वथा सदृश स्वीकार किया है । अद्वैतवादी तो सभी मुक्त जीवोंका परब्रम्हमें लीन हो जानेको मोक्ष मान बैठे है। इसी प्रकार अन्य दार्शनिकोंने भी स्वेच्छा परिकल्पित मुक्त जीवोंमें भेद, अभेद, विभेद कल्पित कर रक्खा है। किन्तु जैन सिद्धांत अनुसार मुक्त जीवोंके केवलज्ञान, सिद्धत्व, कर्मनोकर्मरहितत्व, अगुरुलघुत्व, क्षायिक लब्धियां, अमूर्तत्व आदि भावोंमें कोई अन्तर नहीं है । तथा पूर्व जन्मोंमें कर्मोदय अनुसार हुये गति, जाति, त्रसत्व आदि कारणों अनुसार भी कोई भेद अब नहीं रहा है। तथापि प्रत्युत्पन्न नय और भूतानुग्रह नय इन दो नयोंकी विवक्षाके वशसे क्षेत्र,काल, आदि भेदों द्वारा सिद्ध भगवान्का ध्यान किया जा सकता है। ज्ञापक कारणोंकी विभिन्नता हो जानेसे ज्ञेयतत्त्वकी अन्तस्तलस्पर्शिनी ज्ञप्ति हो जाती है। ध्यान भी अन्तर्मुहर्तसे अधिक ठहरता नहीं है। झट दूसरी ओर उपयोग चला जाता है । अतः स्वकीय शुद्धात्माके चिन्तन करनेमें मुक्त जीवोंका स्वरूप चिन्तन करना आवश्यक कारण है। भगवान् ऋषभदेवका क्षेत्र, काल, अवगाहना आदि द्वारा चिन्तन कर चुकनेपर शान्तिनाथ सिद्ध परमेष्ठीके क्षेत्र आदिका विचार करो पुनः नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदिके चारित्र आदिका ध्यान लगाओ। यों क्रमानुसार उत्कट प्रयत्न करते हुये स्वकीय शुद्धात्म चिन्तन द्वारा मुमुक्षु जीव मोक्षमार्गमें संलग्न हो जाता है । केन रूपेणसिद्धाः क्षेत्रादिभिर्भेदनिर्देष्टव्या इत्याह - यहां कोई तत्त्वबभुत्सु आज्ञाकारी शिष्य प्रश्न करता है कि किस स्वरूपसे क्षेत्र, काल आदि करके बारह भेदों द्वारा सिद्ध परमेष्ठी निर्देश कर लेने योग्य हैं ? बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार महोदय इन अग्रिम वात्तिकोंका स्पष्ट निरूपण कर रहे हैं। सिद्धाः क्षेत्रादिभिर्भेदैः साध्याः सूत्रोपपादिभिः। सामान्यतो विशेषाच्च भावाभेदेऽपि सन्नयैः ॥ १॥

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