Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 479
________________ ४५४) तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे इस सूत्रमें ग्रहण किये गये क्षेत्र आदि भेदों द्वारा श्रेष्ठ नयों करके सिद्धोंकी विकल्पना कर लेनी चाहिये । यद्यपि क्षायिक सम्यक्त्व, सिद्धत्व आदि भावों करके सम्पूर्ण सिद्धोंका सादृश्यमुद्रया अभेद हो रहा है। तथापि तिर्यकसामान्य द्वारा समान हो रहे सम्पूर्ण सिद्धोंकी तद्वयाप्य सामान्य और विशेषों करके श्रेष्ठ नय योजनिका अनुसार चिन्तनायें की जानी चाहिये । स्मतियोंका समन्वाहारही ध्यान बन बैठेगा। क्षेत्रं स्वात्मप्रदेशाः स्युः सिद्धयतां निश्चयानयात्, व्यवहारनयाद्वयोमसकलाः कर्मभूमयः ॥ २॥ मनुष्यभूमिरप्यत्र हरणापेक्षया मता, हृत्वा परेण नीतानां सिद्धेः सूत्रानिवारणात् ॥ ३॥ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंमेसे निश्चयनय अनुसार क्षेत्रका विचार करनेपर विवक्षित द्रव्यके स्वकीय प्रदेशही स्वक्षेत्र समझे जाते हैं। गृह, आकाश, आदिको व्यवहार नयसे घटादिका क्षेत्र कह दिया जाता है। प्रकरणमें सिद्धिको प्राप्त हो रहे मुक्त जीवोंका निश्चय नयसे क्षेत्र तो स्वकीय आत्माके असंख्यात प्रदेशही हो सकते हैं जिनका कि मुक्त आत्म द्रव्यके साथ चोखा अभेद हो रहा है। हां, व्यवहार नयसे आकाश या पांच मेरु सम्बन्धी भरत, ऐरावत, विदेह क्षेत्र अनुसार सम्पूर्ण पन्द्रहों कर्म भूमियां भी क्षेत्र हैं। क्योंकि सभी पदार्थ आकाशमें ठहरते हैं। अत: सामान्य रूपसे सबका क्षेत्र आकाश है । सम्पूर्ण कर्मभूमियोंमें जन्म लेकर स्वेच्छापूर्वक तपश्चरण कर क्षपक श्रेणी अनुसार केवलज्ञानको प्राप्त कर कुछ कालतक संसारमें ठहरते हुये जीव कर्म भूमियोंसेही मोक्ष प्राप्त करते हैं। अतः भूत पर्यायको ग्रहण करनेवाली भूतनयकी अपेक्षा जन्मसे प्रारम्भ कर चौदहवें गुणस्थानतक सिद्धोंका क्षेत्र पन्द्रह कर्मभूमियां हैं। हां, संहरणकी अपेक्षासे पैतालीस लाख योजन लम्बी चौडी गोल मनुष्य भूमि भी सिद्धोंका क्षेत्र माना गया है। कारण कि दूसरे शत्रुभूत विद्याधर या देवद्वारा हर लेने पर कहीं भी मनुष्य लोकमें फेंक दिये गये या ले जायेगा ये जीवोंकी वहांसे सिद्धि हो जानेका आगम सूत्रोंमें निवारण नहीं किया गया है । पैंतालीस लाख योजन प्रमाण सिद्ध क्षेत्र सर्वत्र ठसाठस अनन्तानन्त सिद्धोंसे भरा हुआ है। लवणसमुद्र कालोदधि समुद्र, सुमेरुपर्वतकी चूलिका, नदी, हृद, ज्वालामुखी पर्वत उपस पुद्र आदि सभी तपस्वियोंके

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