Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 480
________________ दशमोऽध्यायः ४५५) अगम्य भी स्थलोंके ऊपर यानी ढाई द्वीपके सभी भागोंके ऊपर सिद्धलोकमें अनन्तानन्त सिद्ध विराज रहे हैं । अतः प्रतीत होता है कि उपसर्ग प्राप्त हो कर अनन्तकृत्केवली उन अगम्य स्थानोंसे मोक्ष गये हैं । ढाई द्वीपसे बाहर मनुष्य शरीर कथमपि नहीं जा पाता है । जैसे कि अग्निमें होकर पारा अक्षुण्ण नहीं निकल पाता है। बिजलीके तीक्ष्ण प्रवाह (करेन्ट) का जीवित, अनावृत, मानव शरीर उलंघन नहीं पाता है। अतः मनुष्य लोकको भी संहारकी अपेक्षा भूतभाव प्रज्ञापननय अनुसार सिद्धोंका क्षेत्र कह दिया गया है। तेषामेकक्षणः कालः प्रत्युत्पन्ननयात्मनः । भूतप्रज्ञापनादेव स्यात्सामान्यविशेषतः ॥ ४ ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जाताः सिद्धयन्ति केचन । चतुर्थकाले पर्यन्तभागे काले तृतीयके ॥५॥ सर्वदा हरणापेक्षा क्षेत्रापेक्षा हि कालभृत् । सर्वक्षेत्रेषु तत्सिद्धौ न विरुद्धा कथंचन ॥ ६॥ उन सिद्ध जीवोंका प्रत्युत्पन्ननय यानी ठीक अवस्थाको कहनेवाले नय स्वरूपसे तो काल एकही क्षण है । अर्थात् कर्मोंका नाश कर उस एकही क्षणमें सिद्ध हो जाते है। हां, पहिले कालोंमें हो चुकी परिणतियोंको बढिया समझानेवाले भूतप्रज्ञापन नयसे सामान्य विशेषकी अपेक्षा करके काल अनुयोग यों खतिपाना चाहिये, कि सामान्यरूपसे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोमें जन्म ले चुके कतिपय जीव सिद्ध हो जाते हैं। उत्स. पिणी या अवसर्पिणीके विशेष रूपसे विचार करनेपर तो अवसर्पिणीके पूरें चौथे कालमें और तीसरे कालके पर्यन्त भागमें सिद्धि हो जाती है। हां, उत्सर्पिणीके तो तीसरे दुःषमसुषमा कालमें सिद्ध होते हैं । हर ले जानेकी अपेक्षा सभी कालोंमें सिद्धि है। जब कि देवकुरु उत्तर कुरुओंमें सदा सुषमसुषमा काल वर्त रहा है। हरि और रम्यक वर्ष क्षेत्रों में सर्वदा सुषमाकाल विद्यमान है । हैमवतक और हैरण्यवतकमें सदा सुषमदुःषमा समय हो रहा है । यदि कोई विद्याधर या देव किसी चरम शरीर मोक्षगामी जीवको तपश्चरण करते हये उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमियोंमें हर ले जाय तो वहांसे भी पहिले, दूसरे, तीसरे कालोंमें सिद्धि हो जाना संभवता है । भरत, ऐरावत, क्षेत्रोंमें छठे

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