Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 490
________________ दशमोऽध्यायः है । किसी भी अवयवमें पीडा हो सम्पूर्ण आत्मामें उसका अनुभव होता है । दूसरी बात यह है कि आत्माके प्रदेश अनेक हैं। इसी प्रकार आकाशके प्रदेश भी नाना हैं। जों बम्बईमें आकाशके प्रदेश हैं । वे सहारनपुरमें नहीं है, अन्यथा मानने पर सहारनपुरके पेटमें उसी स्थलपर बम्बई घुस बैठेगी। शरीरमें मुखविवर, उदरदरी नासिकारन्ध्र न्यारे न्यारे हैं। यदि प्रदेशोंको न्यारा न्यारा न माना जायगा तो शरीर या आत्माकी आकृति परमाणुके बरोबर हो जायगी। सरसोंके स्थलपर सुमेरु पर्वत अक्षुण्ण समा जावेगा, सिध्दान्त यह है कि प्रत्येक शरीरमें 'स्व' संवेदन प्रत्यक्ष द्वारा प्रतीत हो रहे जीव द्रव्य प्रतिशरीर न्यारे न्यारे अनेक हैं। कोई धनवान है, कोई निर्धन है, मूर्ख पण्डित, नीरोग-सरोग, बाल वृद्ध, पशु, पक्षी, पुरुष-स्त्री, देव-नारकी, कीट-पतंग, अग्निकायिक जलकायिक, कर्जदार, कर्जदेनेवाला, न्यायाधीश (जज) कैदी, पुण्यवान् पापी, अद्वैतवादी द्वैतवादी, ब्रम्हचारी व्यभिचारी, बध्य घातक, स्वामी सेवक, गुरु शिष्य, ठग और ठगा गया, ये सब जीव न्यारे न्यारे हैं। अभी इसी सूत्र द्वारा सूत्रकार महाराज करके क्षेत्र, काल आदिकी अपेक्षा जीवोंको न्यारा न्यारा सिद्ध कर संसारी जीवोंके एकपनका तात्त्विकरूपसे खण्डन किया जा चुका है । उस आत्मैकत्वमें कहे गये एक आत्मा तत्त्वको कहनेवालोंके वचनको प्रमाणता नहीं है । प्रमाणरहित अंटसंट कहनेवालोंके वचन परीक्षकोंके यहां मान्य नहीं हैं। पर संग्रहनयसे सम्पूर्ण पदार्योंको एक कह देने में कोई बाधा नहीं है। किन्तु प्रमाणोंसे अनेकोंकों एक कहना असत्यार्थ है। सिद्धोंके समान कोई दूसरा नहीं है । अतः वे अनन्तानन्त सुखी सिद्ध अद्वैत यानी अनुपम भी कहे जा जकते हैं। संग्रह नयकी अपेक्षा सिद्धोंको एक कहा जा सकता है। इस कारण जिनेन्द्र करके प्रतिपादित की गयीं और सम्पूर्ण खोटे मतों रूप गाढ अन्धकारका विध्वंस करने में अतीव दक्ष हो रही यह मोक्ष तत्त्वार्थकी नीति तो सूर्यकी दीप्तिके समान उज्वल होकर तीनों लोक प्रकाश रही है। " खद्योतो द्योतते तावद्यावन्नोदयते शशिः, उदिते तु दिवानार्थे न खद्योतो न चन्द्रमाः ॥ " जुगुनू तब तक चमकता है जब तक कि चन्द्रमाका उदय नहीं होता है। हां, प्रतापी सूर्यका उदय हो जानेपर तो न चन्द्रमा और न पट बीजना चमक पाते हैं। इस श्लोकवात्तिक महान् ग्रन्थ में सर्वज्ञ जिनेन्द्र करके प्रतिपादित किये गये न्यायशास्त्रका निरूपण किया गया है । सहस्रनाम स्तोत्रमें अग्रणी ग्रमिणीर्नेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत्, शास्ता धर्मपतिर्धयॊ धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् " इस

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