Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 492
________________ दशमोऽध्यायः प्राह; कारणोंकी प्रतिपत्ति कराना भी आवश्यक हुआ है। तभी उनका परित्याग किया जा सकेगा । यों इस महान् ग्रन्थमें सात तत्त्वोंका विशदरूपेण वर्णन है । रत्नों का संचय करना न्यारा कार्य है, किन्तु अपहारकोंका या शत्रुओंसे लढाईमें जीतकर उन तत्त्वार्थ रत्नोंकी परिरक्षा करना, दीप्ति बढाना, विलक्षण कार्य है । स्वचतुष्टय अपेक्षा अस्तित्व धर्म से परचतुष्टयापेक्ष. नास्तित्व धर्म न्यारा है । जो कि सांकर्य आदि दोषोंको हटाकर स्वास्तित्वको बाल बाल रखाये हुये है । इस ग्रन्थका स्वाध्याय करनेवाले जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका आश्रय पाकर मोक्षकी प्राप्ति कर लेते है । यह ग्रन्थकारके इन श्लोकोंसे ध्वनित हो जाता है । ज्ञानी जीव तत्त्वज्ञान स्वरूप माणिक्यकी इस ग्रन्थ द्वारा चंद्रवत् दीप्तिको बढाकर अज्ञानान्धकाररिक्त प्रकाशित मोक्षमार्ग में निरुपद्रव गमन करते हैं । तदेवं शास्त्रपरिसमाप्तौ परममंगलं निःश्रेयसमार्गमेव मंगलमभिष्टोतुमनाः ४६७) तिस कारण इस प्रकार इस तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार नामक महान् शास्त्रकी . सांगोपाङ्ग समाप्ति हो चुकनेंपर सर्वोत्कृष्ट मंगल हो रहे मोक्ष मार्गकोही अन्त्य मंगल स्वरूप मानते हुये और उसही की अन्तिम स्तुति करनेके मानसिक अभिप्रायको धार रहे ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी अग्रिम पद्यको शार्दूल विक्रीडित छन्द द्वारा सानन्द गायन पुरस्सर स्पष्ट कह रहे हैं । जीपात्सज्जनताश्रयः शिवसुधाधारावधानप्रभुर्ध्वस्तध्वांतततिः समुन्नतगतिस्तीत्रप्रतापान्वितः । प्रोर्जज्ज्योति रिवावगाहनकृतानंतस्थितिर्मानितः, सन्मार्गस्त्रितयात्मकोऽखिलमलप्रज्वालनप्रक्षमः ॥ ३० ॥ प्रकृष्ट रूप करके बलवान् हो रही ज्योतिके समान सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों स्वरूप हो रहा श्रेष्ठ मोक्षमार्ग जयवन्ता रहे । यानी सूर्य या चन्द्रमाकी ज्योति जैसे अनादिसे अनन्तकालतक जयवन्ती है । उसी प्रकार रत्नत्रय आत्मक मोक्षमार्ग भी जयशील बना रहे। यहां उत्कृष्ट ज्योतिको उपमान और मोक्ष

Loading...

Page Navigation
1 ... 490 491 492 493 494 495 496 497 498