Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 476
________________ ४५१) इसी प्रकार यदि मुक्तका गमन होगा तो ऊपरही होगा । अन्य दिशाओं में नहीं होगा केवल इतनाही अभीष्ट है ऊपर गमन होताही रहे यह मन्तव्य आर्हतोंको इष्ट नहीं है । यों उपरिम तनुवातके अग्रभागमें मुक्तों के ऊर्ध्वगमनका अभाव होते हुये भी मुक्त द्रव्यका अभाव नहीं हो पाता है । संभव है पूर्ण कारण सामग्री मिल जाती तो मुक्तका ऊर्ध्वगमन होता रहता, जैसे कि घोडेके शिरपर भी कठिनावयव सींग बनानेकी सामग्री मिल जाती तो बैलके समान अश्वके भी विषाण उठ निकलते । किन्तु जब असंभाव्य कार्योंका प्रतिबन्धक कारण विद्यमान है तो ऊर्ध्वगमन नहीं हो पाता है । " प्रतिबन्धकाभाववत्त्वसति कारणतावच्छेदकावलीढधर्मावच्छिन्नाविकलत्वं सामग्री " 1 दशमोऽध्यायः नन्वेवं मुक्तस्य लोकात्परतः कुतो नोर्ध्वगतिरित्याह; 1 पुनः किसीको यह शंका रह गयी है कि मुक्त जीवका लोकसे परली ओर ऊपर किस कारण से ऊर्ध्वगमन नहीं हो पाता हैं ? बताओ अर्थात् अग्निका तो वेगवाले द्रव्यके साथ संयोग हो जानेंसे तिरछा ज्वलन हो जानेपर अभाव नहीं हो सकना समुचित है | मुक्त जीवके तो फिर स्वभाव गतिको लोपनेवाला कोई हेतु नहीं है । अतः ऊर्ध्वगमन होने को विराम नहीं मिलना चाहियें, ऊर्ध्वगमन अनन्तकाल तक होते रहना चाहिये ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तनेपर सूत्रकार महोदय इस अग्रिम सूत्रकों कह रहे हैं । धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८ ॥ सम्पूर्ण जीव और पुद्गल्येंके गमन करनेमे सहकारी कारण हो रहे धर्मास्तिकायका लोकके ऊपर अभाव होनेसे लोकाग्र के उपरिम अलोकमें मुक्त जीवका गमन नहीं हो पाता है । भावार्थ--लोक और अलोकके विभागकी अन्यथा अनुपपत्ति अनुसार धर्मास्तिकायकी सिद्धि हो रही है । धर्मद्रव्य अनेक गुणोंका पिण्ड है त्रिकाल अस्तित्वको लिये हुये है । लोकाकास बरोबर व्यञ्जन पर्यायको धार रहा प्रदेशों का प्रचय स्वरूप है । ऐसा अमूर्त धर्मास्तिकाय अलोक आकाश में नहीं हैं । अतः उदासीनकरण के " नहीं होनेसे अलोकाकाशमें किसीका गमन नहीं हो पाता है । 1 कः पुनर्धमास्तिकाय इत्याह; यह धर्मास्तिकाय फिर क्या पदार्थ है ? ऐसी विस्मरणशील शिष्यको जिज्ञासा उठने पर ग्रन्थकार समाधानार्थ अग्रिम वार्त्तिकों को कह रहे हैं ।

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