Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
की प्राप्ति होती है। यहां इस लोक में या वर्तमानकाल में सुखसामग्री भोगते हुये पीछे बडी भारी विपत्ति और निन्दनीय प्रवृत्तियों का जो झेलना हे सो यह उत्तरकालीन पाप का और वर्तमानकालीन अपने उपार्जित पुण्य का फल है, यों उस पुण्यपाप को जाननेवाले अतीन्द्रियदर्शी आचार्य महाराज कहते हैं। तथा उससे न्यारा भी एक फल है जो कि इस पूर्वोक्त के विपर्यय करके यानी उल्टी प्रवृत्ति करने से प्राप्त होता है। वह आदि अवस्था में पाप का और भविष्य के पुण्य को उपार्जन में तत्पर हो रहे कर्मबन्ध का फल है। भावार्थजगत् में कितने ही महन्त, भट्टारक, गोस्वामी, साधू बाबा पुज रहे हैं । हजारों भोले भगत उनको धन देते हैं उनका चरणामृत लेते हैं। वे लोग भी अभिमान में और धार्मिक अधिकारों में चूर होकर अनेक पापों को करते हुये इह लोक, परलोक में भारी आपत्तियों को प्राप्त करते हैं। विवेकशील मनुष्य उनके पीछे भारी निन्दा करते हैं। कोई कोई जातिनेता, देशनेता भी अंतरंग में कपट धार कर निःस्वार्थ सेवा करना दिखाते हुये पुज जाते हैं, मौज मारते हैं, किन्तु पीछे वे दुःखों को झेलते हैं छोटे छोटे बच्चे उनकी निन्दा करते हैं। बहुत से राजा, महाराजा या अधिकारी भी इस पापानुवन्धी पुण्य का अनुभव करते हैं। यह उत्तरकालीन पाप और वर्तमानकालीन पुण्य का फल दीख रहा है । तथा इससे उल्टे फल को भोगने वाले जीव भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं। कोई मुनि बीमार है या कोई विद्वान् अच्छा कार्य कर रहा भी निन्दा का पात्र बन रहा है। सज्जनों के ऊपर अनेक उपसर्ग आ पडते हैं कठिन ब्रह्मचर्य को पाल रहीं कतिपय कुलांगनायें दुःख झेल रही हैं । व्रती या दम्भरहित भोले पुरुषों की लोग निन्दा करते हैं यह सब पूर्वोपार्जित पाप का वर्तमान में फल हो रहा हैं किन्तु भविष्य में पुण्यसामग्री का संपादक पुरुषार्थ भी साथ लग रहा है। इन दो भङ्गों को दृष्टान्तपूर्वक साध देने से पुण्यानुबंधी पुण्य और पापानुबंधी पाप के दृष्टान्त सुलभतया ज्ञात हो जाते हैं। अनेक नीरोग शरीर, धनाढय, प्रतिष्ठित, पुत्र पौत्र वाले, वे सज्जन पुरुष मन, वचन, काय से रात दिन न्यायपूर्वक आचरण करते हैं। इसके विपरीत जगत् सं ऐसे भी जीव हैं जो वर्तमान में पापफल भोग रहे हैं और भविष्य के लिये भी पापबंध कर रहे हैं । मुडचिरे, क्रोधी, दरिद्र, अपथ्यसेवी, रोगी द्वोन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय आदि क्षुद्रजीव वहुभाग इसी कोटी में ही गिन लेने योग्य हैं।
इति अष्टमाध्यायस्य द्वितीयमान्हिकम् ।। इस प्रकार आठवें अध्याय का दूसरा आन्हिक समाप्त किया गया है ।