Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोध्यायः
२२७)
भावार्थं वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता इन चारों के सम्बन्ध से जो होती है वह संप्रज्ञात समाधि है वह इसमें प्राकृत पदार्थों का ज्ञान, परमात्माका ज्ञान, आनंदका अनुभव, अपने स्वरूपका ज्ञान ऐसे अनेक ज्ञान होते ही इस कारण यह सवितर्क, निवितर्क, सविचार, निर्विचार, चारों स्वरूप सबीज समाधि है, इसमें निविचार समाधि उत्तम मानी गई है । परमवैराग्य द्वारा प्रज्ञा और प्रज्ञासंस्कारों का भी विरोध हो जानेपर निरालंबन चित्त असंप्रज्ञात समाधिको प्राप्त होता है यह निर्बीज समाधि सर्वोत्तम है । शुद्ध स्वकीय रूपसे ही परमात्माका साक्षात्कार करता हुआ योगी मुक्त हो जाता है, उस समय समाधिको धारनेवाले आत्माओंके ज्ञानका भी सर्वथा उच्छेद हो जाता है | पतंजलि ऋषि के बनाये हुये योगसूत्रके समाधिपादमे ऐसे कथन किया गया हैं कि उस निरोध के समय या योग आवस्थामे दृष्टा आत्माका अपने शुद्ध पर मात्मस्वरूप चैतन्यमात्रमे अवस्थान हो जाता है ।
द्रष्टो ह्यात्मा ज्ञानवांस्तु न कुम्भाद्यस्ति कस्यचित् । धर्म मेघसमाधिश्चेन्न दृष्टा ज्ञानवान् यतः ॥ ३ ॥
योगमत अनुसार आत्मा मात्र देखनेवाला दृष्टा हैं, ज्ञानवान् तो नहीं है ज्ञान या बुद्धी तो प्रकृतिका विवर्त है, जोकि चैतन्यसे न्यारा है, आत्मा चेतन है, प्रकृति ज्ञानवती है। जिस प्रकार घट, पट, आदि के ज्ञान नहीं उपजता हैं उसी प्रकार आत्मामे भी ज्ञान नहीं है । असंख्य जीवोमेंसे किसी किसी के धर्ममेघ नामकी समाधि उपजती है " प्रसंख्याने प्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्याते धर्ममेघः समाधिः " ( योगसूत्र कैवल्यपाद २९ वाँ सूत्र ) इस सूत्र मे समाधिके प्रकर्षकी प्राप्तिका उपाय बताया गया है । यथाक्रमसे व्यवस्थित हो रहे तत्वोंकी परस्पर विलक्षण स्वरूपसे भावना करना होनेपर भी फलकी लिप्सा नहीं रखनेवाले योगी के निरंतर विवेकज्ञानका उदय होनेसे धर्ममेघ नामक समाधि उपज जाती हैं । अर्थात् संप्रज्ञात समाधिके फलस्वरूप विवेकज्ञानकी परमसीमा के नाम धर्ममेघ समाधि है । उस धर्ममेव समाधि से वासनासहित अविद्यादि क्लेश और पुण्यपाप रूप कर्म निवृत्त हो जाते हैं (" ततः क्लेशकर्म निवृत्तिः " ) उस क्लेश निवृत्तीकालमे अविद्यादि सम्पूर्ण आवरण और मलोंसे रहित हुये चित्तके अनन्तप्रकाशमे ये ज्ञेय पदार्थ स्वल्प प्रतीत हो जाता है । अर्थात् ज्ञेय जगतसे असंख्यातगुरणा भी पदार्थ अधिक होता तो योगी उसको भी ज्ञानप्रसाद द्वारा जान सकता था । ज्ञानप्रसादरूप परमवैराग्य तो व्युत्थान सम्प्रज्ञात समाधिमे लगा देता है । यहां तक योगविद्वान् आत्माक चैतन्य और द्रष्टापनको पुष्ट करता हुआ धर्ममेघ समाधिको कह चुका है ।