Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
हो जाना मोक्ष है । ऐसा वैशेषिक मान रहे हैं। अथवा प्रकृतिका संसर्ग छूटकर शुद्ध चैतन्य मात्रमें आत्माकी स्थिति हो जाना मोक्ष है। ऐसा सांख्य मान रहे हैं, अद्वैत परमानन्दमें निमग्न हो जाना परनिःश्रेयस है । ऐसा ब्रम्हाद्वैतवादी मान रहे हैं। अथवा अन्य प्रकारोंसे बौद्ध, मीमांसक, शाक्त योग आदि दार्शनिक मोक्षके स्वरूपको बोल रहे हैं। यों मोक्षके सूत्रोक्त स्वरूपकी युक्तिसहित सिद्धि हो जानेपर उक्त वैशेषिक आदि दार्शनिकोंके अभीष्ट मोक्षवादका निराकरण कर दिया गया समझा जाय क्योंकि उनका मुक्तिवाद प्रमाणोंसे व्याघातको प्राप्त हो रहा है। इसी बातका ग्रन्थकार " शार्दूलविक्रीडित " छन्दः में कही गई अगली वार्तिक द्वारा निवेदन कर रहे हैं।
स्वात्मांतर्बहिरंगकल्मषतति व्यासक्तिनिर्मुक्तता, जीवस्येति वदंति शुद्धधिषणा युक्त्यागमान्वेषिणः । प्राप्तिस्तस्यतु नितिः परतरा नाभावमात्रं न वा, विश्लेषो गुणतोन्यथा स्थितिरपि व्याहन्यमानत्वतः ॥ ४ ॥
जीवतत्त्वकी शुद्ध आत्मा यही है कि अन्तरंग और बहिरंग पापोंकी लडी या सन्तानके विशेषतया चारों ओरसे बन्धजानेका अनन्तकाल तकके लिये मोक्ष हो जाय, हिताहित विचारिणी शुद्ध बुद्धि को धारनेवाले तथा युक्ति और आगमका अन्वेषण कर रहे पुरातन आचार्य ऐसा अक्षुण्ण सिद्धान्त कह रहे हैं। अत्यन्त उत्कृष्टपर निःश्रेयस तो उस स्वात्माकी प्राप्ति हो जाना है । बौद्धोंके मन्तव्य अनुसार प्रदीप निर्वाणवत् केवल अभाव हो जाना मोक्ष नहीं है । और वैशेषिकोंके विचार अनुसार आत्माका विशेष गुणोंसे विश्लेष (वियोग) हो जाना भी परमोक्ष नहीं है। अथवा अन्य प्रकारोंके चैतन्य मात्र स्थिति होना या सालोक्य, सामीप्य, सायुज्य, सारूप्य आदिक भी मोक्ष नहीं हैं । क्योंकि उक्त अलीक सिद्धान्तोंमें व्याघात, पूर्वापर विरोध, गुणीका अभाव हो जाना आदि अनेक दोषों द्वारा बाधायें उपस्थित हो रही है जिनको कि पहिले प्रकरणोंमें दिखाया जा चुका है।
इति वशमाध्यायस्य प्रथममान्हिकम् ।