Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 466
________________ दशमोऽध्यायः ततः सकलकल्मषसन्ततिसंसक्तिविनिर्मुक्तिरेव स्वात्मेति समाचक्षते युक्तिशास्त्राविरुद्धवचसः सूरयो भगवन्तस्तस्य स्वात्मनः प्राप्तिः परा निवृत्तिरिति निःसंदिग्ध, तेन स्वविशेषगुणव्यावृत्तिर्मुक्तिश्चैतन्यमात्रस्थितिर्वा अन्यथा वा वदंतोपाकृताः, प्रमाणव्याहतत्वादिति निवेदयति; ____ तिसही कारण पूर्व आचार्य महाराज यों भले प्रकार आम्नायपूर्वक बखानते आ रहे है कि सम्पूर्ण पापोंकी संततिके संसर्गका विशेषरूपेण सर्वांग मोक्ष हो जानाही आत्माका निजस्वरूप है । अर्थात् किसी समयके भी कर्मसमुदायको जीव अधिकसे अधिक सत्तर कोटाकोटी सागर कालमें छुडा देगा किन्तु उनके उदय अनुसार कषायवश हो रही पापोंकी सन्ततिसे मोक्ष पा जाना अतीव दुर्लभ है। कषायोंके संस्कारवश अनन्तानन्त वर्षों से जीवके कर्मबन्ध सन्तति लगी चली आ रही है। कर्मोंकी स्थिति सत्तर कोटाकोटी सागर, चालीस कोटाकोटी सागर आदि रूप करके व्यवस्थित है। किन्तु कर्म सन्तानका कोई स्थितिबन्ध नियत नहीं है। " अन्तोमुहुत्त पद्ववं छम्मासं संख संख णांतभवं " यह सब एक उदयापन्न कर्मव्यक्तिका वासनाकाल है । सन्तानका नहीं अनादिसे अनन्त कालतक भी अभव्योंकी कल्मषसन्तति पायी जाती है । गेहूं, चना, व्यक्तियोंकी उम्र दश, बोस, पचास, सौ वर्ष नियत हो सकती है। परन्तु गेहूं, चनोंकी बीजांकुर सन्ततिकी कालमर्यादा कोई नियत नहीं है। किसी बीज व्यक्तिकी अनादिसान्त और अन्य बीजोंकी अनादिसे अनन्तकाल तक सन्तति चली जाती है । मुमुक्षु महापुरुषार्थी जीव क्षपक श्रेणीपर चढकर परले दो शुक्लध्यानों द्वारा सम्पूर्ण पापों और पाप सन्ततियोंका परिक्षय कर देता है। वही शुद्धात्माका सम्यक्त्व, ज्ञान: दर्शन, सिद्धत्व, सत्ता, आत्मक स्वरूप है। युक्ति और शास्त्रसे अविरुद्ध वचनोंको कहनेवाले आचार्य भगवान् उसी स्वामीकी प्राप्तिको कर्मोका उत्कृष्टतया निवृत्त हो जाना मानते हैं । निर्वृत्ति पाठ अच्छा जचता है अथवा स्वात्माकी प्राप्तिही उत्कृष्टमोक्ष (पर निःश्रेयस) स्वीकार करते हैं । यह सिद्धान्त सन्देहरहित होकर सिद्ध किया जाता है। ग्रन्थके आदिमें दो सौ पचास वीं “ तन्न प्रायः परिक्षीणकल्मषस्यास्य धीमतः, स्वात्मोपलब्धिरूपेस्मिन् मोक्षे संप्रतिपत्तितः" इस वात्तिक द्वारा ग्रन्थकारने जो कहा था। उसी रहस्यको पुष्ट कर दिया गया है । तिस कारण अपनी आत्माके बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, और संस्कार इन नौ विशेष गुणोंकी व्यावृत्ति

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