Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
तच्छद्वाद्गृह्यते मोक्षः सूत्रेस्मिन्नान्यसंग्रहः, सामर्थ्यादिति तस्यैवानन्तरं तदनंतरं ॥ १ ॥ गच्छतीति वचःशक्तेर्मुक्तिदेशे स्थितिच्छिदा, ऊर्ध्वमित्यभिधानात् दिगन्तरगतिच्युतिः ॥ २ ॥ अलोकान्तादिति ध्वानान्ना लोकाकाशगामिता, मुक्तश्चेति त्वयं पक्षनिर्देशः कृतमित्यपि ॥ ३ ॥
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इस सूत्र में उपात्त किये गये तत् शद्वसे दशम अध्यायके द्वितीय सूत्रोक्त का ग्रहण किया जाता है । अन्य केवलसम्यक्त्व आदिका समीचीनतया ग्रहण नहीं है । यह व्यवस्था कहे विनाही प्रकरण अनुसार सामर्थ्य से प्राप्त हो जाती है । इस कारण उस मोक्ष झटिति उत्तरकालही तदनन्तरका अर्थ है । इस सूत्र में " गच्छति " यह वचन कहा गया है । इस शद्वकी सामर्थ्यसे मुक्तिप्रदेश ढाई द्वीप में ही जहां की तहां मुक्त जीवकी स्थिति बने रहनेका व्यवच्छेद कर दिया गया है । और सूत्रमें " ऊर्ध्वं इस प्रकार कथन कर देनेसे तो ऊपरसे अतिरिक्त अन्य दिशाओंमें मुक्त जीवोंकी गति हो जानेकी व्यावृत्ति हो जाती है । तथा आलोकान्तात् " इस प्रकार इस पदका निरूपण कर देनेसे तो अलोकाकाशमें भी चले जानेकी टेब रखनेका निषेध हो जाता हैं । और गच्छति क्रियासे आक्षिप्यमाशा ' मुक्तः ' यह तो पक्षका निर्देश किया गया है । अर्थात् " मुक्तो जीवस्तदनन्तरमालोकान्तादूर्ध्वं गच्छति " इतना प्रतिज्ञावाक्य है । इसमें पडे हुये सभी पदोंकी इतर व्यावृत्ति करते हुये सफलता दिखा दी गई है । धर्मद्रव्य, और अधर्मद्रव्यका ऊपरला भाग तथा सभी अनन्तानन्त परमेष्ठियोंके शिरोभाव यानी मूड सम्बन्धी उपरिम आत्मप्रदेश तो अखण्ड आकाशके खण्डरूपेण कल्पित कर लिये गये तत्रस्थ अलोकाकाशके अधस्तन प्रदेशों में संस्पृष्ट हो रहे हैं ।
हेतु निर्देशस्त हि कर्तव्य इत्याह;
विनीत शिष्य कह रहा है कि इस सूत्रानुसार कही गयी प्रतिज्ञाके हेतुका निर्देश तब तो करना चाहिये । हेतु प्रयोगके बिना कोरी प्रतिज्ञाका कोई परीक्षक आदर नहीं करता है । ऐसी जिज्ञासा उत्थित होनेपर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं ।