Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 468
________________ ४४३) यहां तक तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकालंकार संज्ञक महान् ग्रन्थ में दशवें अध्यायका पहिला आन्हिक यानी प्रकरण समुदाय समाप्त हो चुका है । कर्माष्टकप्रमोक्षणजाष्टगुणा अष्टमीधराधिष्ठाः, सच्चित्क्षमादिरूपाः सिद्धाः पुरुषाथिनोददंतु बोधिम् ॥ १ ॥ दशमोऽध्यायः ++++ अगिले सूत्रका अवतरण यों है कि यहां कोई दार्शनिक कह सकता है कि यदि मोक्ष हो जाने पर कारण नहीं रहनेसे जीवका संकोच और विस्तार नहीं होता है । तब तो गति के कारणोंका अभाव हो जानेसे मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन भी नहीं हो सकेगा । जैसे कि नीचे या तिरछा गमन नहीं हो रहा है । तिस कारण जिस स्थानपर जीव मुक्त हुआ है। वहां ही अनन्तकाल तक उसी आसन से स्थित बना रहेगा । ऐसी अनिष्टापत्ति के प्रवर्त्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्रका झटिति प्रतिपादन करते हैं । तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकांतात् ।। ५ ।। उस मोक्ष के अव्यवहित उत्तरं कालमें मुक्त जीव स्वभावसे लोकके अन्तपर्यन्त ऊपरको चला जाता है अर्थात् जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव | अस्वाभाविक यहां वहां ले जानेका निमित्त कारण कर्मबन्ध था जब कर्मबन्धका परिपूर्णरूपेण अभाव हो गया तो अपनी वैसिक परिणति अनुसार जीव ऊपरको चला जाता है । लोकान्तसे ऊपर गमनका सहकारी कारण धर्मद्रव्य नहीं है । अतः लोकान्ततक जाकर वहांही सिद्धक्षेत्र में विराजमान हो जाता है । " तद्गृहणं मोक्षस्य प्रतिनिर्देशार्थं, आभिविध्यर्थः । एतदेव समभिधत्ते । " तत् शद्ध पूर्वका परामर्शक होता है । इस सूत्र में तत् पदका ग्रहण हैं जो कि कुछ व्यवहित पडे हुये मोक्षका प्रतिनिर्देश करनेके लिये है । तत्का अर्थ प्रधान भी होता है। यहां प्रकरणमें मोक्ष प्रधान है । अतः उसी प्रधानका प्रतिकृति कथन हो जाता है । " आलोकान्त " पदमें पडे हुये " आङ " उपसर्गका अर्थ " अभिविधि " है । उच्चार्यमाण अर्थ से सहित अभिविधि होती है । अतः लोकका ऊपरला अन्तिमस्थान भी गृहीत हो जाता है । इसही मन्तव्यको ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिकों द्वारा कह रहे हैं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498