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यहां तक तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकालंकार संज्ञक महान् ग्रन्थ में दशवें अध्यायका पहिला आन्हिक यानी प्रकरण समुदाय समाप्त हो चुका है ।
कर्माष्टकप्रमोक्षणजाष्टगुणा अष्टमीधराधिष्ठाः,
सच्चित्क्षमादिरूपाः सिद्धाः पुरुषाथिनोददंतु बोधिम् ॥ १ ॥
दशमोऽध्यायः
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अगिले सूत्रका अवतरण यों है कि यहां कोई दार्शनिक कह सकता है कि यदि मोक्ष हो जाने पर कारण नहीं रहनेसे जीवका संकोच और विस्तार नहीं होता है । तब तो गति के कारणोंका अभाव हो जानेसे मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन भी नहीं हो सकेगा । जैसे कि नीचे या तिरछा गमन नहीं हो रहा है । तिस कारण जिस स्थानपर जीव मुक्त हुआ है। वहां ही अनन्तकाल तक उसी आसन से स्थित बना रहेगा । ऐसी अनिष्टापत्ति के प्रवर्त्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्रका झटिति प्रतिपादन करते हैं ।
तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकांतात् ।। ५ ।।
उस मोक्ष के अव्यवहित उत्तरं कालमें मुक्त जीव स्वभावसे लोकके अन्तपर्यन्त ऊपरको चला जाता है अर्थात् जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव | अस्वाभाविक यहां वहां ले जानेका निमित्त कारण कर्मबन्ध था जब कर्मबन्धका परिपूर्णरूपेण अभाव हो गया तो अपनी वैसिक परिणति अनुसार जीव ऊपरको चला जाता है । लोकान्तसे ऊपर गमनका सहकारी कारण धर्मद्रव्य नहीं है । अतः लोकान्ततक जाकर वहांही सिद्धक्षेत्र में विराजमान हो जाता है ।
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तद्गृहणं मोक्षस्य प्रतिनिर्देशार्थं, आभिविध्यर्थः । एतदेव समभिधत्ते ।
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तत् शद्ध पूर्वका परामर्शक होता है । इस सूत्र में तत् पदका ग्रहण हैं जो कि कुछ व्यवहित पडे हुये मोक्षका प्रतिनिर्देश करनेके लिये है । तत्का अर्थ प्रधान भी होता है। यहां प्रकरणमें मोक्ष प्रधान है । अतः उसी प्रधानका प्रतिकृति कथन हो जाता है । " आलोकान्त " पदमें पडे हुये " आङ " उपसर्गका अर्थ " अभिविधि " है । उच्चार्यमाण अर्थ से सहित अभिविधि होती है । अतः लोकका ऊपरला अन्तिमस्थान भी गृहीत हो जाता है । इसही मन्तव्यको ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिकों द्वारा कह रहे हैं ।