Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोक वातिकालंकारे
ऊपरको चला जाता है । क्योंकि ऊपर जानेका पूर्वसैही प्रयोग लग रहा है। जैसे कि घुमा दिया गया चाक बिचारा दण्डके हट जानेपर भी पूर्व संस्कारवश गतिक्रिया करता है । १ " मुक्तो जीव ऊर्ध्वं गच्छति ( प्रतिज्ञा ) असंगत्वात् (हेतु) व्यपगतलेपालंबुवत्. ( अन्वय दृष्टान्त) मुक्त जीव ढाई द्वीपसे शीघ्र ऊपरको जाता है । क्योंकि उसक किसीका संसर्ग नहीं रहा है । जैसे कि जिस तुम्बीका संलग्न लेप दूर हो गया है। वह तुम्बी तहसे जलके ऊपर स्वभावतः आ जाती है २ । मुक्तो जीवः (पक्ष) ऊर्ध्वं गच्छति (साध्य) बन्धच्छेदात् ( हेतु ) एरण्डबीजवत् ( अन्वयदृष्टान्त ) मुक्त जीव ऊपरको जाता है । क्योंकि उसके बन्धनोंका छेद हो गया है । जैसे कि अण्डीका बीज डोंडासे निकल कर प्रथमही ऊपरको जाता है । ऐंठपरी या अन्य भी कतिपय फलियों में प्रथमसे ही ऐंठका संस्कार रहता है । उनका बन्धन हटा देनेपर स्वभावतः वे सिकुड जाती हैं । संस्कार अनुसार इठ जाती हैं । आदि, अण्डीके बीज में ऊपर जानेका संस्कार उत्पत्ति कालसेही प्रविष्ट हो रहा हैं ३ । मोक्षानन्तरं जीवः ऊर्ध्वगच्छति ( प्रतिज्ञा ) तथागतिपरिणामात् (हेतुः ) अग्निशिखावत् ( अन्वयदृष्टान्त) मोक्षके पश्चात् जीव ऊपरको जाता है । क्योंकि तिस प्रकार ऊर्ध्वगमन उसकी स्वाभाविक परिणति है । जैसे कि स्वतः स्वभाव अग्निकी शिखा ऊपरको जाती है ४ । यों चारों पदार्थानुमानों द्वारा प्रतिवादीके सन्मुख सूत्रकार महाराजने मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन सिद्ध कर दिया है ।
किमर्थमिदमुदाहरणचतुष्टय मुक्त मित्याह;
ये चारोंही उदाहरण भला किस प्रयोजनके लिये सूत्रकार महोदयने कहे हैं ? इस प्रकार किसीका तर्क उपस्थित हो जानेपर श्री विद्यानन्द स्वामी उसके समाधानार्थ इस अग्रिम वार्तिकको कह रहे हैं ।
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आविद्धेत्यादिना दृष्टं सद्दृष्टांतचतुष्टयं, बहिर्व्याप्तिरपीष्टेह साधनत्वप्रसिद्धये ॥ १ ॥
आविद्धकुलाल " इत्यादि सूत्र करके चारों श्रेष्ठ दृष्टान्त दिखा दिये गये
हैं। यहां अनुमानमें इष्ट साध्य के अविनाभावी हो रहे प्रकृत हेतुमें साधनपने की प्रसिद्धि के लिये बहिरंग व्याप्ति भी घटित हो रही है । भावार्थ- पक्ष से बाहर दृष्टान्त में जो व्याप्ति दिखलाई जाती है । वह बहिरंग व्याप्ति है । जैसे कि पर्वत में आग है ।