Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 401
________________ (३७६) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे . जिम सेवकः विगत यानी दूर चले गये हैं वह गांव " विसेवक " 1, कहा जाता है । यहां विसेचक पदमें " आदेशप्रत्यययोः इस सूत्र करके ष नहीं हो पाता है । क्योंकि दूसरी गत क्रियाका संबंध हो गया है । उसी प्रकार " प्रतिगतासेंवना " यों मध्यमें अन्य क्रियाका सम्बन्ध हो जानेसे ष नहीं होने पाता है । उसी क्रियाका सम्बन्ध बना रहता तो अखण्डपदकी रक्षा हो जानेके अनुसार मूर्धन्य ष हो सकता था । यों पुलाक आदिक मुनिवर "संयम श्रुत" आदि करके साध्य यानी व्याख्यान करने योग्य हैं । यह सूत्रका अर्थ निकला । किस प्रकार वे साध लिये जाय ? ऐसी जिज्ञासा उत्थित होनेपर ग्रन्थकार अग्रीम वात्तिकों को कह रहे हैं । उस मुनिपदवीको जाननेवाले विद्वानों करके, संयम आदि आठ अनुयोगों करके क्रम अनुसार वे पुलाक आदि ऋषि स्वकीय नद-प्रभेदों द्वारा यहां साध लेने योग्य है ।। १ ।। सामायिक, छेदोपस्थापना, आदि भेदोंवाले संयम पांच कहे जा चुके हैं। दूसरा श्रुत भी बहुत भेद--प्रभेदोंको धार रहा है । विद्यमान व्रतोंकी विराधना हो जानेपर पीछे तदवस्थित होनेके लिये सेवा करना तीसरी प्रतिसेवना कही जाती है ॥ २ ॥ चौथा तीर्थ तो तीर्थकर महाराजोंकी अपेक्षा रखता हुआ धर्ममार्गका प्रवर्तन करना है, पांचवां लिंग तो द्रव्य और भाव करके दो प्रकार हो रहा संयमीका लक्षण है ॥ ।। कषायों करके पीछे पीछे रंगी जा रही योगों की प्रवृत्ति छठी लेश्या बखानी गई है । कृष्ण आदि भेदसे छः प्रकार हो रही वह लेश्या यहां शुद्ध और उससे न्यारी अशुद्ध रूपसे दो प्रकार मानी गई है ॥ ४ ॥ उपपादके कतिपय अर्थ हैं । किन्तु यहां संयमकी सामर्थ्य से जन्मस्थान रूप उपपाद लिया गया है । संसारी जीवोंके मरकर कर्मानुसार पुनः जन्म लेनेके जो स्थान हैं । वह उपपाद हैं, अन्य उपपाद यहां प्रस्ताव प्राप्त नहीं हैं ॥ ५ ॥ इसी प्रकार स्थानके भी अनेक अर्थ हैं । किन्तु संयमका प्रकरण होनेके कारण यहां कषायोंसे उत्पन्न हुये और नोकषायोंसे उपजे अथवा ग्यारहमेंसे ऊपर गुणस्थानोंमें अकषाय भावोंसे भी उत्पन्न हुये असंख्यात लोकप्रमाण संयमस्थान यहां स्थान माने जाते हैं, जो कि विभिन्न अपेक्षाओं करके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट स्वरूप होकर नियत हैं ।। ६ ।। इसके आगे ग्रन्थकार स्वनिर्मित अलंकार ग्रन्थमें कह रहे हैं कि उन मुनियोंमेंसे या आठ अनुयोगोंमेंमे पुलाक, वकुश, और प्रतिसेवनाकुशील मुनि तो सामायिक और छेदोपस्थापना संयमों में वर्त रहे हैं। हां, कषायकुशील ऋषिवर तो परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसांपराय संयममें तथा

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