Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 432
________________ दशमोऽध्यायः ४०७) इसका तात्पर्य यही है कि वह न्यायशास्त्र, साहित्य, सिद्धान्त, ज्योतिष आदि शास्त्रोंके ज्ञानसे रहित हो रहा शुद्ध वैयाकरण मात्र है। इसी प्रकार केवल सुखका अर्थ यह है कि अर्हन्त अवस्थामें दुःख सर्वथा नहीं रहे । दुःखके सम्यकैसे रहित हो रहा उत्तम सुखही यहां केवलसुख कहा गया है। " तत्सुखं यत्र नासुखं " प्रदेश प्रदेश यानी स्वल्प विषयोंमें होनेवाले क्षायोपशमिक ज्ञानोंके संसर्गसे रहित हो रहा क्षायिकज्ञानही यहां केवलज्ञान अभीष्ट है । तिसी प्रकार एकदेशी क्षायोपशपिक दर्शनोंसे रहित हो रहा क्षायिक दर्शन ही यहां दर्शन माना गया है ॥ ३॥ का० । वीर्य भी छोटी छोटी स्वल्प सांसारिक शक्तियोंसे पृथग्मूल हो रहा अनन्तवीर्य यहां केवलवीर्य प्रतिपादित किया गया है । एवं उस अनन्तदान, लाभ आदिसे विपरीत हो रहे संसारी जीवोंके अल्पदान, स्तोकलाभ, अदान आदि भावोंसे असंलग्न हो रहे क्षायिकदान, क्षायिकलाभ आदि भी सूत्रोक्त केवलपद करके कहे गये हैं। यों चार कर्मोंके क्षय हो जानेसे अनन्त चतुष्टयोंका होना निरूपित किया गया है । अन्तका अतिक्रमण कर रहे अनन्तकाल तकके लिये मोहकर्मका ध्वंस हो जानेसे जीवन मुक्तको आत्यन्तिक अनन्तानन्त सुख हो जावेगा। यह सुख परमशान्ति स्वरूप है । वैशेषिक या नैयायिक कुछ भी माने किन्तु जैन सिद्धान्त अनुसार मोक्ष अवस्थामें इस अनन्तानन्त प्रशमसुखका निराकरण नहीं है तथा ज्ञानावरणका अतीव क्षय हो जानेसे तिसी प्रकार अनन्तानन्त शुद्ध क्षायिकज्ञान भी मोक्ष अवस्थामें विद्यमान है। निराकरणीय नहीं है ।। ४-५ का० ॥ एवं दर्शनावरण कर्मका प्रध्वंस हो जानेसे अनन्तानन्त क्षायिक महासत्तालोचनात्मक दर्शन भी व्यक्त हो जाता है। अपने अपने क्षायिकदान, क्षायिकलाभ आदिके प्रतिपक्षी हो रहे दानान्तराय, लाभान्तराय आदि सम्पूर्ण अन्तराय कर्मोके क्षयसे अनन्तज्ञान, अनन्तानन्तवीर्य, आदिकी भी मोक्ष अवस्था में स्थिति प्रसिद्ध है। इस प्रकार मोक्षमें चैतन्य, सुख, दर्शन, वीर्य, दान आदि अनेक शुद्ध परिणतियोंकी व्यवस्था हो रही है । जो सांख्यमतानुयायी मोक्ष अवस्थामें केवल चैतन्यही मानते हैं। अथवा ज्ञानाद्वैतवादी या ब्रम्हाद्वैतवादी अकेले ज्ञान या चित्सत्ताको मान बैठे है । ऐसा मुक्तिमें शक्ति (वीर्य) दान आदिसे रहित हो रहा केवल कुछ भी नहीं कर सकनेवाला चैतन्यही नहीं व्यवस्थित है। अर्थात् ज्ञानावरण, लाभान्तराय, भोगान्तराय आदिका क्षयोपशम हो जानेपर भी यदि वीर्यान्तरायका क्षयोपशम नहीं है । तो वे सब व्यर्थ (फल) हैं। निर्बल, अशक्त या सरोग अवस्थामें

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