Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 433
________________ ४०८) तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे पण्डितों, धनाढयोंके ज्ञान, भोग, उपभोग कुछ भी नहीं होने पाते हैं। अतः अनेक गुणोंकी स्फूति होनेमें वीर्यगुणका स्फुरायमाण होना अनिवार्य आवश्यक है । जिस दार्शनिकने मोक्ष अवस्थामें वीर्यगुणसे रहित हो रहा केवल चैतन्यमान रक्खा है। वह कोरा चैतन्य अकिंचित्कर है, जडताके समान है। शारीरिक अंगों के समान अनेक गुण परस्परापेक्ष होकरही स्वकीय सत्ताको स्थिर किये हुये हैं । धडके विना अकेला मस्तक मर जायगा, मस्तकके विना धड सी जीवित नहीं रह सकता है। तद्वत् चैतन्यकी स्थिति अनन्तवीर्य के साथ अवलम्बित है ।। ६॥ ॥ “शक्तिर्यस्य बलं तस्य" यों वात्तिकों द्वारा अनेक विप्रतिपत्तियोंका निराकरण हो चुकनेपर पुनः कोई आक्षेपकर्ता शंका उठा रहा है कि यहां दशमें अध्यायमें सातवें मोक्ष तत्त्वके निरूपणका प्रस्ताव किस प्रकार समझा गया ? बताओ । ऐसा आक्षेप प्रवर्तनपर तो हम ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि नौवें अध्यायमें " सगुप्तिसमिति " इत्यादि सूत्र करके संवरतत्त्वकी प्ररूपणा की जा चुकी है। वहां ही "तपसा निर्जराच" इस सूत्र करके छठे निर्जरा तत्त्वका भी कथन हो चुका है। तथा " मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः " इस सूत्र करके अविपाक निर्जराकी प्रतिपत्ति कराई जा चुकी है। " ततश्च निर्जरा" इस आठवें अध्यायके सूत्र करके सविपाक निर्जराका भी प्रतिपादन कर दिया गया है। अतः छहों तत्त्वोंका व्याख्यान हो चुकनेपर परिशेष न्यायसे इस दशवें अध्यायमें मोक्षका निरूपण करना न्याय प्राप्त है । यदि यहां कोई यों शंका उठावे कि यह तीन सूत्रों द्वारा निर्जराका प्रतिपादन भी निर्जराके कारणोंका कथन है ' इनमें निर्जराका सिद्धान्तलक्षण नहीं कहा गया है। अतः निर्जराका सूत्रकारको कण्ठोक्त लक्षण यहां करना चाहिये । यों कहनेपर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि यह नहीं कहना क्योंकि निर्जरा शद्बकी व्यभिचार दोषसे रहित हो रही “ निर्जीर्यते यया सा निर्जरा” इस निरुक्ति करकेही निर्जराके लक्षणका कथन हो जाता है । अतः उस निर्जरा स्वरूपके लिये अन्य सूत्रके आरम्भ करने में सूत्रकारका अभिप्राय नहीं है। शद्व निरुक्ति करकेही यदि पदका यौगिक अर्थ निकल पडता है । तो उनके पारिभाषिक लक्षण सूत्रको बनानेकी आवश्यकता नहीं रह जाती है। जैसे कि ज्ञान चारित्र, क्षायिक, ईर्या, ज्ञानावरण आदिक पद हैं। हां, जिन शद्वोंका योगिक अर्थ सूत्रकारको अभीष्ट नहीं हैं। उन सम्यग्दर्शन उपयोग, गुप्ति, परीषह आदि शद्वोंकी निरुक्ति कर देनेसे इष्ट अर्थका व्यभिचार हो जाता है । अत: उनका लक्षण

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