Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 460
________________ दशमोऽध्यायः ४३५) साधनस्य च प्रदीपे सद्भावात् स दृष्टान्तः स्यादेव जीवस्य चामूर्तमूर्तत्वोभय लक्षणयुक्तत्वात् न मूर्तिमद्वैधर्म्यमस्ति यतोऽयं दृष्टान्तो न स्यात् । “बन्धं प्रत्येकत्वं लक्षणतो भवति तस्य नानात्वं, तस्मादमूर्तिभावो नैकांताद्भवति जीवस्य ।" इति रचनात् कथं चिन्मूर्तिमत्त्वस्यापि प्रसिद्धः । नामकर्मसंबन्धप्रसंगः प्रदीपस्येति चेन्न, तस्य दृष्टान्तत्वेनाविवक्षितत्वात् साधन धर्मत्वानभिप्रायात् स्वाधिष्ठानपरिमाणानुविधायित्वस्य च साधनधर्मस्य तत्र भावात् शरीरं हि जीवस्याधिष्ठानं प्रदीपस्य तु गृहं तत्परिमाणानुविधान. मुभयोरस्तीति नोपालंभः । शरीरपरिमाणानुविधायित्वं साधनं प्रदीपे तस्या सत्त्वात् । नापि गृहपरिमाणानुविधायित्वं तस्यात्मन्यभावात् तत इदमुच्यते-संसारी जीवः प्रदेशसंह रणविसर्पण धर्मकः स्वाधिष्ठानपरिमाणानुविधायित्वात् प्रदीपप्रकाशवत्, नहि मुक्तात्मा स्वाधिष्ठानपरिमाणानुविधायी तस्याशरीराधिष्ठानस्याभावात् । पूर्वानन्तरशरीरपरिमाणं तु यदनुकृतं तत्परित्यागकारणस्य नामकर्मसंबंधिनिबन्धनशरीरान्तरस्याभावान्नं विसर्पणं मुक्तस्य यतो लोकाकाशपरिमाणत्वापत्तिः। __ यहां कोई आक्षेप करता है कि आत्माके संकोच विस्तारसहितपना साधने में दीपक दृष्टान्त देना श्रेष्ठ नहीं है । क्योंकि आत्माका मूर्तिमान्के साथ विलक्षण धर्मसहितपना हो रहा है । प्रदीप मूर्तिमान् है । अमूर्ति आत्मा उससे विलक्षण है। साधर्म्य रखनेवाला पदार्थ दृष्टान्त हो सकता है, विधर्मा नहीं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि मूर्त और अमूर्त दोनों लक्षणोंसे प्राप्त हो रहा आत्मा है । शुद्ध उपयोग लक्षणकी अपेक्षा आत्मा अमर्त है । और कर्म नोकर्मके बन्ध परिणामकी अपेक्षा आत्मा मूर्त है । साध्यधर्मका अधिकरणपना और साधनधर्मका अधिकरणपना दृष्टान्तका स्वरूप है । उनमें संकोच विस्तार धर्मोसे सहितपने साध्यका और अधिष्ठानके परिमाणका अनुविधान करना साधनका प्रदीपमें सद्भाव है । अतः वह दीपक दृष्टान्त हो हो जायगा । जीवके नयविवक्षा अनुसार अमूर्तपन और मूर्तपन दोनों लक्षणोंका योग है। इस कारण मूर्तिमान्के साथ विधर्मापन नहीं है जिससे कि मूर्त जीवका मूर्त दीपक दृष्टान्त नहीं हो पाता, अर्थात् साधर्म्य होनेसें दीपक दृष्टान्त समुचित है। सिद्धान्त ग्रन्थोंमें इस प्रकार वचन है कि जीव और पुद्गलका बन्धाके प्रति एकत्व हो रहा है। और अपने अपने लक्षणोंसे उनका नानात्व नियत है। तिस कारण एकान्त रूपसे जीवका अमूर्त होना नहीं है । यों बन्धकी अपेक्षा जीवका कथंचित् मूर्तिसहितपना

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